Saturday 25 June 2011

मन वकील के मन की आवाज़-1....

प्रिये मित्रों ...आज कई दिनों बाद वापिस दिल्ली लौटा हूँ ,,पुरे परिवार के साथ शिमला गया हुआ था...मन काफी प्रसन्न है...माता पिता साथ गए थे...मित्रों माँ बाप के मरने के बाद उनके श्राद पर पैसे खर्चने से बेहतर है की उनके जीते जी उन पर खर्च किये जाए और उन्हें कुछ पल की ख़ुशी दी जाये....माँ बाप के चेहरे की ख़ुशी कुछ पल में पूरा जीवन सफल हो जाता है...वो मन की संतुष्टि ही कुछ और तरह से मन को आनंदित करती है.....सच में एक मेडल जितने से अधिक ख़ुशी होती है......आपका मन-वकील

Thursday 16 June 2011

फितरत-2

" हाल छुपाकर रखा करों दोस्त, सीने में कही इस तरह,
लोग ना जान पाए तेरे दर्द का समंदर, कुछ इस तरह,
जुबाँ का काम लो मेरे दोस्त, अपनी आँखों से इस तरह,
अरे, अल्फाज़ निकले बस बहकर कुछ आंसुओं की तरह "

फितरत

यारों जुबाँ खोल कर ज़रा देखा, तो फितरत सामने आ गई,
उनके चेहरे की रंगत बदली अचानक, नफरत सामने आ गई,
बस खामोश रहकर सब देखते रहे, जब हम दुनिया की रंगत,
सजने लगी फिर यारों की महफ़िल,चाह-इ-हसरत सामने आ गई...

छोटू

अरे छोटू, कहाँ मर गया है, हरामजादे,
चल जा उस टेबल पे कपड़ा मार जल्दी,
वो भागता उस टेबल की और तेजी से ,
और ये गालियाँ अब उसकी किस्मत है,
उस टेबल के आसपास कुर्सियों पे बैठे,
वो भद्र-पुरुष और नारियां, न जाने कैसे,
अपना वार्तालाप बीच में छोड़ अचानक,
छोटू को देख, नाक मुहं ऐसे सिकोड़ते ,
जैसे किसी कूड़े के ढेर पर हो वो बैठे,
उसके सफाई वाले कपडे से आती दुर्गन्ध,
उन्हें उस छोटू के भीतर से आती हुई लगती,
छोटू के वो छोटे हाथ एकाएक, तेज़ तेज़ ,
उनकी टेबल पर छपी चिखट को मिटाते,
और उधर उसका वो बचपन भी धीरे से ,
मिटता जाता, चुपचाप, बिना किसी शोर के,
और वो भद्र मानुस और मेमसाब, देख कर सब,
ऐसे अनजान से बने रहते, मूर्ति के जैसे, जड़वत,
जैसे उनके अपने आँगन में बालावस्था न हो,
और फिर वो भद्र पुरुष, प्रकट करते अपने चरित्र,
चीख कर कहते , जैसे वो हिमालय पर हो चढ़े ,
अबे छोटू , जा जल्दी से दो स्पेशल चाय ला,
और हाँ, साले उँगलियाँ गिलास में मत डालियो,
जैसे छोटू इन भद्र मानुस का कोई गुलाम हो,
और छोटू के कदम मुड जाते, भट्टी की ओर,
जैसे वो चाय लेने नहीं, खुद को उस भट्टी में ,
झोंकने जा रहा हो, बदकिस्मती से बचने के लिए,
रोज़ रोज़ की गालियाँ और बोनस में पड़ती लातें,
और कभी कभार, आने वाले ग्राहकों के थप्पड़,
उसने भुला दिया है इन सब के बीच, सहते हुए,
अपना वो बचपन, जो उसे खिलाता और खेलाता,
कभी अपने बापू के कन्धों पर सवारी करवाता,
और माँ के हाथों से लाड से दाल भात न्योत्वाता,
परन्तु बापू के गुजरने के बाद , परिवार का बोझ,
नन्ही नन्ही बहनों की फटी हुई मैली फ्रान्कें,
और माँ के हाथों में आ चुकी वो कुदाल और टोकरी,
कहाँ लेकर आ गयी है , इस छोटे से छोटू को ,
उसके बचपन से कोसो दूर, इस चाय की दुकान पर,
जहाँ पेट में रोटी से पहले, गालियाँ और लातें मिलती,
उसके बचपन के बचे हुए अंश को मिटाने के लिए,
जो भीतर तो छुपा है , पर हमेशा लालायित रहता,
उसके बाहर आने को किसी रोज़, मरते हुए भी ............
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भिखारी

आँखों में बस भूख थी उसके,
और तन में चिथड़ों के वसन,
दोनों हाथ फैलाएं सबके आगे,
सड़क के किनारे वो था यूँ खड़ा ,
मैं जो निकला उससे बचकर,
जब अपनी रहा था मैं टटोल,
एक सिक्के को मुठी में थामे,
मन में मेरे विचार यह आ पड़ा..
क्या दूं ? यह सिक्का इसके मैं,
या फिर इसे जब में ही रहने दूँ ,
फिर अचानक उसकी और देखा,
और वो मुझे देख कर यूँ हंस पड़ा,
मैं विचारों से आ गिरा अचानक,
इस चेतना की पथरीली धरती पर,
उसकी मुस्कान ने मुझसे जैसे पूछा,
बता, मैं भिखारी या तू ? कौन है बड़ा ?

सच नहीं बोलेगा

सच, जो नित मुझे डरा देता है,
कैसे बोल पाऊंगा में , इसे कभी,
यदि बोल दूंगा तो, निश्चित ही,
कुछ बंधू होंगे विमुख मुझसे,
और कुछ मित्र विचलित से,
कोई तो अधिकता की सीमा ,
लांगकर, उगल देगा एकाएक,
मेरे बारे में , अपना वो सच ,
जो उसने भी छुपाया होगा,
भीतर मन के अँधेरे कोने में,
बिलकुल मेरी तरह, जैसे में,
मन के उस अँधेरे कोने में रोज़,
झांकता तो हूँ, पर उसके कपाट,
बंद रखता भय से, कही कोई,
खोल ना दे मेरे भीतर की परते,
शायद तभी यह सच पड़ा रहता ,
वहां खामोश, चिंतन से युक्त हो,
कभी कभी निकल भी पड़ता ,
मेरे नेत्रों से अश्रु धारा के संग,
परन्तु फिर में यही कोशिश,
करता रहता, चेतन मन से,
कमबख्त छुपा ही रहे, यह,
सदैव, काहे को बाहर आकर,
मित्रों से शत्रुता, रिश्तों में कटुता,
सभी अपने कहे जाने वालों से,
बैर मोल ले, जीवन को दूभर,
बनाने में कोई कसर न छोड़े,
अतः मैं इसे छुपाये रखता,
सदैव झूठ के कई मन बोझ से,
मुझे नहीं कहलाना, वीर महान,
इसके जिव्या पर आते ही, तो,
मैं समाज से बहिष्कृत होकर,
वीरगति को ही ना प्राप्त हो जाऊं,
समझौता कर लिया है मैंने, अब,
अपने उस मरे हुए आत्मबोध से,
जो कुछ भी हो जाए, मैं सदैव,
ढांपे रखूँगा, अपनी हकीकत को,
और मन-वकील सच नहीं बोलेगा ,
कभी भी और कहीं भी,किसी को नहीं......

वो मुसाफिर

वो जब आया इस दुनिया में, बहुत शोर मचाता रहा,
शोर शोर करते करते, अपना आगमन बतलाता रहा,
माँ की गोद से, पिता के कंधे पर चढ़कर, हर रोज़,
अपने पाँव पर वो धीरे धीरे एकदिन चल निकला,
शुरू करने अपनी जीवन के सफ़र का , एक दूसरा ही दौर,
उसके पहले कदम धरा पर रखने से भी हुआ वैसा ही शोर,
उसके नन्हे नन्हे क़दमों की ताल भी, अब कुछ बदलने लगी,
तेजी आयी जुबान सी उसके क़दमों में, जिन्दगी मचलने लगी,
पहले अकेला रहा वो, अब हमकदम हमसफ़र मिलने लगे,
कुछ छूटे मोड़ पर ही , कुछ उसके साथ साथ चलने लगे,
नए विचारों से उसने नए जीवन को दिए उसने आयाम,
रुक न पाया वो कभी इस भागदौड़ में , करने को विश्राम,
अब उसके क़दमों की ताल के संग, कुछ कदम अपने से मिले,
जो अलग हो अपनी राह को निकले, कल तक जो साथ थे चले,
धीरे धीरे उसके क़दमों की भी गति , लगी कुछ अपने आप घटने,
वो अलग सा होने लगा उस राह से, लगा था कुछ वो भी थकने,
एकदिन ना जाने क्यों वो, एकाएक ही था उसका सफ़र थम गया,
चार कंधो पर चला वो अग्नि भस्म होने, वो मुसाफिर गुम गया...

विद्रोही हूँ

विद्रोही हूँ हनन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
बुझा दो अग्नि क्रांति की,
दिखाकर छवि शान्ति की,
झूठी आशा को नमन कर दो
आज मेरा दमन कर दो,
न बहे प्रगति की कोई गंगा,
रहने को हुआ है मन नंगा,
उग्र विचारों का हवन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
उदित न होने पाए कोई सूरज,
न तैरे शिक्षा के नवीन जलज,
गतिज नए युग का शमन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
मुखों पर जड़ दो कई कई ताले,
न कोई नए ग्रन्थ अब रच डाले,
तोड़ो लेखनी,पत्र सब भस्म कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
हो जनता, परिवर्तन सुख से विहीन,
मिलें रास्ते में, पुनः पुनः मन-मलिन ,
चेतन से जड़ हो सभी, ऐसा जतन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
नसों में बहता यह रक्त अब श्वेत हो जाये ,
बंज़र मरुभूमि , सब ये हरे खेत हो जाये,
उजड़ जाए जंगल, ऐसा कुछ प्रयत्न कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
मुझे अब दे दो विष मसीह वाला वो प्याला,
न देखे अब मन-वकील सुबह का नया उजाला,
मृत्यु भी मिले,पीडान्तक, ऐसा मरण कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
विद्रोही हूँ हनन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,

मैं था या तुम थी स्वछंद ?

कहो मैं था या तुम थी स्वछंद ?
जो विचारों से उन्मुक्त हो बहती,
जिसे बंधन का कोई आभास नहीं,
यौन या मन का कोई भी, और कभी
कोई बंधन नहीं बाँध पाया तुम्हे, कभी,
अरे, हो तुम बहती हुई एक नदी सी,
जब मैं आया था जीवन में तुम्हारे,
बनकर उस बहती नदी के दो किनारे,
कुछ देर रही तक तुम उनमे सिमटी,
बहती मंद मंद सी, रही मुझसे लिपटी,
फिर भावों में आये अचानक तुम्हारे,
कुछ ऐसे तीव्रता के अनोखे से बहु तंत,
और तुम लांग गयी उन्ही किनारों को,
नदी सी नयी भूमि ग्रहण करने, बिना अंत,
मैं भी संग बह गया था,टूटते किनारों सा,
परन्तु रोक न पाया मैं, तुम्हारी वो गति
कैसा रोक पाता, वो तुम्हारी यौन उन्मुक्तता,
वो स्वतंत्र होने को उद्धत सी,व्याकुल मति,
तुमने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा मुझे कभी,
मैं कहाँ से टुटा कहाँ बहा, सुध न ली कभी
रहा नियमों से परे, खुले व्योम सा आचार,
मैं चाहकर भी न कर सका, कभी प्रतिकार,
और अब जब वापिस आयी तुम बहने फिर,
उसी पथ उसी राह से, जैसे होकर पुनः सिधिर,
अब पूछती हो मुझसे, करती क्यों हो द्वन्द,
कहो प्रिये मैं था या तुम थी स्वछंद ?

भूली तुम मेरा प्यार

अब कैसे लिखूंगा ? मैं वो रचना,
जिसमे तुम्हारे रूप का होता वर्णन,
अब कौन बनेगा ? मेरी वो प्रेरणा,
जब तुम ही चले गए छोड़ मुझे राह में,
चेतना में अब विराम सा लग गया,
और शून्य जैसे ह्रदय में हो जड़ गया,
कहाँ दौड़ा पाऊंगा मैं मन के वो अश्व,
जो उड़ाते थे तुम से मिलने को नभ में,
जो अपने पंखों को फैला करते थे हमेशा
तुम्हारे माधुर्य रूप लालिमा को अंगीकृत,
एक दीप्त्य्मान ज्योति सी तुम्हारी छवि,
जो मैं प्रतिदिन अपने भीतर गहरी करता,
और उसमे हर पल नए नए रंग था भरता,
ओज़स मेरे भीतर आता था तुमसे बहकर,
तुम्हारे सानिध्य से होती तृप्ति, रह रहकर,
युग बीत जाते कुछ ही पलों में, छूमंतर हो,
मैं और तुम, तुम और मैं, कुछ न अंतर हो,
और फिर बैठ जाता,ऐसे ही कुछ लिखने,
मन हो जाता प्रकाशित, तुम लगती दिखने,
कुछ बंधन बाँध स्वयं को, मैं सिहिर पड़ता,
किसी अहाट को सुन, तुमसे विछोह से डरता,
अब जब तुम चली गयी, ना जाने क्यों और कहाँ,
मैं खोजता फिरता हूँ प्रिये, अब तुम्हे यहाँ वहाँ,
साथ लेकर चली गयी तुम मन के भाव भी मेरे,
उजियारा भी अब रहा नहीं, छाये चहु ओर अंधरे,
लेखनी भी अब मेरी चलने से करती है इंकार,
मैं नहीं भुला तुम्हे प्रिये, किन्तु भूली तुम मेरा प्यार...
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मेरी माँ

जितना मैं पढता था,शायद उतना ही वो भी पढ़ती,
मेरी किताबों को वो मुझसे ज्यादा सहज कर रखती,
मेरी कलम, मेरी पढने की मेज़ , उसपर रखी किताबे,
मुझसे ज्यादा उसे नाम याद रहते, संभालती थी किताबे,
मेरी नोट-बुक पर लिखे हर शब्द, वो सदा ध्यान से देखती,
चाहे उसकी समझ से परे रहे हो, लेकिन मेरी लेखनी देखती,
अगर पढ़ते पढ़ते मेरी आँख लग जाती, तो वो जागती रहती,
और जब मैं रात भर जागता ,तब भी वो ही तो जागती रहती,
और मेरी परीक्षा के दिन, मुझसे ज्यादा उसे भयभीत करते थे,
मेरे परीक्षा के नियत दिन रहरह कर, उसे ही भ्रमित करते थे,
वो रात रात भर, मुझे आकर चाय काफी और बिस्कुट की दावत,
वो करती रहती सब तैयारी, बिना थके बिना रुके, बिन अदावात,
अगर गलती से कभी ज्यादा देर तक मैं सोने की कोशिश करता,
वो आकर मुझे जगा देती प्यार से, और मैं फिर से पढना शुरू करता,
मेरे परीक्षा परिणाम को, वो मुझसे ज्यादा खोजती रहती अखबार में,
और मेरे कभी असफल होने को छुपा लेती, अपने प्यार दुलार में,
जितना जितना मैं आगे बढ़ता रहा, शायद उतना वो भी बढती रही,
मेरी सफलता मेरी कमियाबी, उसके ख्वाबों में भी रंग भरती रही,
पर उसे सिर्फ एक ही चाह रही, सिर्फ एक चाह, मेरे ऊँचे मुकाम की,
मेरी कमाई का लालच नहीं था उसके मन में, चिंता रही मेरे काम की,
वो खुदा से बढ़कर थी पर मैं ही समझता रहा उसे नाखुदा की तरह जैसे,
वो मेरी माँ थी, जो मुझे जमीं से आसमान तक ले गयी, ना जाने कैसे .....
=====प्रिये माँ के लिए..

Wednesday 15 June 2011

मेरा वर्तमान

वर्तमान की चिंता करता देखा मैंने भूतकाल,
और भविष्य के पीछे दौड़ता रहता है वर्तमान,
अवशेषों में खुशियाँ ढूंढें, भुलाकर आज की चाल, 
इन रेत के घरौंदों में ढह कर रह जाता है वर्तमान,
बीते सपने, बीते हुए पल,धीमी सी हुई वो ताल,
तीव्रता को थामे हाथों में, दौड़ता रहता है वर्तमान,
आने वाले कल की चिंता, बीते कल का करे मलाल,
समक्ष पड़े दायित्व-क्रम को भूलता रहता है वर्तमान,
मेरे बंधू या मेरे शत्रु , सोच सोच बस यही होता बेहाल,
आवसादों को मन के भीतर ढोता रहता है वर्तमान,
=======मन-वकील

माँ.

माँ...एक अक्षर और एक मात्रा,
जो प्रारंभ है मेरे जीवन की यात्रा,
जो ज्ञान बोध है मेरे जीवन का सार,
माँ सिर्फ माँ नहीं, है वो पूरा संसार....

===मन-वकील

Tuesday 14 June 2011

कैसी है यह जिन्दगी--3

एहे कड्वो सच से इह झूठी आस भली
जो दीयों सबहु रंग सो मन को बहलाय,
कैसो मोल ना करे, इहु मृग तृष्णा को,
मन-वकील,जो मृग दीयों चहुओर भटकाय
=======मन-वकील

कैसी है यह जिन्दगी--2

अरे जिन्दगी दो दिशाओं में चलती है अब मेरी,
कभी रोशनी तो कही रात ढलती है अब मेरी,
कौन जाएगा मन-वकील किस ओर?क्या खबर,
ये नाव दो धाराओं में फंस के चलती है अब मेरी,
ना ढूंढ़ अब मुझे किसी भी एक मुकाम पे, ऐ सनम,
अरे यह शाम भी दो जगहों पे कटती है अब मेरी,,,,
======मन-वकील 


सदा पैबंद बन कर ही जिया वो, मान बंदगी,
बस सिलता रहा दूसरों की फटी हुई जिन्दगी,
यूँ तो वो था ढांपता, दूसरों के दीखते खुले गुनाह,
पर ना जाने क्यों वो लोग उस पे उठाते उँगलियाँ,
=======मन-वकील  


अब तो उसके टूटने की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती,
चोट खाता वो हर-बार, पर कमबख्त दिखाई नहीं देती,
कभी तो झाँक-कर देखों ,उसकी उन खामोश आँखों में,
ऐसी कौन सी गम की परछाई है जो दिखाई नहीं देती.....
=======मन-वकील
 

कैसी है यह जिन्दगी--

कभी खट्टी है, तो कभी मीठी होती है यह जिन्दगी,
कभी बच्चे की किलकारी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी पुरानी बुढ़िया सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी पतझड़ सी, कभी बसंत सी होती है यह जिन्दगी,
कभी जागी तो कभी कुम्भकर्ण सी सोती है यह जिन्दगी,
कभी हकीकत, तो कभी ख्वाबों को पिरोती है यह जिन्दगी,
कभी खेलती रहती, कभी थकी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी अनगिनत यादों के बोझ को भी ढोती है यह जिन्दगी
कभी मेरे करीब है, कभी मुझसे दूर होती है यह जिन्दगी,
कभी तारीखों के पन्नों में दबी इतिहास होती है यह जिन्दगी,
कभी मासूम सी, और कभी चालबाज़ सी होती है यह जिन्दगी,
कभी मन-वकील के मन सी, अशांत भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तारों की छाँव, तो कभी सूरज की तपिश होती है यह जिन्दगी,
और कभी भीड़ में बैठकर भी, अकेली सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी हाथों की लकीरों में, ना जाने कहाँ भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तकरीरों को सुनती, कभी लतीफों की तरह होती है यह जिन्दगी,
कभी विधवा का क्रंदन,कभी किसी देव का वंदन होती है यह जिन्दगी,
कभी आमों की बयार, कभी साँपों से घिरा चन्दन होती है यह जिन्दगी,
कभी हास-परिहास, और कभी युगों से उदास होती है यह जिन्दगी,
कभी रूठी प्रीतम की तरह, कभी प्रेयसी से पास होती है यह जिन्दगी,
अज़ब रूप धरे रहती , एक अनबूझा सवाल सी होती है यह जिन्दगी,
कभी उलझन बन डूबी रहती, कभी बेमिसाल सी होती है यह जिन्दगी,
मन-वकील अब तो निकल पड़ किसी राह पर,हाथों में लेकर यह जिन्दगी,
बीत जायेगी बिन कहे, और कभी पल-पल सी रुक ना जाए यह जिन्दगी.......

वक्त का पहिया

वक्त का पहिया चला , साथ मैं भी चल पड़ा..
कुछ पल खुशियों के, कुछ पल गम के भरे,
मुठी में बंद थी जिन्दगी, फिर भी मैं चल पड़ा,
कुछ रूप थे सच्चे, और कुछ बहरूप मैंने धरे,
सोच थी कहीं और कही मन, और मैं चल पड़ा,
लोग मिलते रहे और कुछ राह ही में ही उतरे,
कभी चुभन, कभी सहज, सहन कर मैं चल पड़ा,
भाव आते रहे मन में, झूठे और कभी इतने खरे,
कोई रोके आगे बढ़कर, कोई पीछे, और मैं चल पड़ा ,
विकटता से भरा रहा सदा मैं, कई कई बार मन डरे,
वेदना-चेतना के मेल से युक्त, फिर भी मै चल पड़ा,
वक्त रूककर मुझसे पूछे, कब अंतिम पथ पर खड़े?