Monday 24 September 2012


धरातल से ऊपर मेरे पाँव है,
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
कभी बादलों से घिरा रहता था,
कभी हवाओं का जोर सहता था,
पेड़ों की डालियों पर थे पत्ते हरे,
खेत थे खलियान भी थे सब भरे,
लोगों की महफ़िल थी शोर था,
खुश थे सब ना कोई कमज़ोर था,
वजह थी वहीँ न बेवजह था कोई,
रातें थी चांदनी पर,रहती वो सोई,
कहाँ सब जा बसे अब कहाँ गाँव है
कहीं छुप गया वो मेरा गाँव है,
राह थी चलती, जो लोग चलते,
वहीँ जानवर दोस्तों से थे पलते,
सब नज़दीक था मंदिर भी वहीँ,
पाठशाला की घंटी से हिलती जमीं,
बच्चे थे संग थे खेल कंचे और हाकी,
सभी एक से एक, ना कमी थी बाकी,
बस एक दिन कोई धुंआ आ गया,
मेरे गाँव के सब खेत ही वो खा गया,
अब बस दौड़ते है मजबूरी के पाँव
कहीं गुम हो गया वो मेरा गाँव,
==मन-वकील



Friday 14 September 2012


          पूछे आज हमसे नन्ही बिटिया हमार,
         काहे देश में मृत को लगे एहो सी पुकार,
        जब भी मरे कोई तो, पुकारे उसे स्वर्गीय,
        चाहे हो बाह्मण, छत्री हो कोई भी वर्गीय,
        क्या मरने के बाद, सभी जाय ऊपर स्वर्ग,
       क्या कर्मों के जोड़ से, कुछ नहीं जाते नरक,
       प्रश्न तो था बहुत ही कमाल और असरदार,
      क्यों सभी पुकारे जाते है स्वर्गीय ही हरबार,
     चोर लुटेरे नेता मंत्री या हो भ्रष्ट सरकारी कर्मी,
     वो भी क्या स्वर्ग जाएगा जो करे कृत्य अधर्मी,
    क्या जनता को भूखी मार सता वो पायेंगे स्वर्ग,
    क्या हत्यारे डकैती डालने वाले ना जायेंगे नरक,
    चोर लुटेरें और मंत्री भी क्यों कहलाते स्वर्गीय,
    दागदार करते मानवता को,वो क्यों ना बने नरकीय,
   और गरीब जनता जो भोगे हर पल यहाँ नरक,
   वही है सच्ची हकदार स्वर्ग की, जाती है वही स्वर्ग/////
==मन वकील

Sunday 9 September 2012

जाकर समन्दर के किनारों से कह दो,
गिरते झरनों के सफ़ेद धारों से कह दो,
कह दो जाकर बहती नदियों के जल से,
जोर से कहो जाकर हवा की हलचल से,
ऊँचे पहाड़ों में जाकर कर दो तुम ऐलान,
जरा चीखों ऐसे, जो सुन ले बहरे मकान,
कुदरत के हर जर्रे में फैलाओ यह खबर,
अब इस मुल्क में बेईमान हुआ हर बशर,
खजानों में करे क्योकर हम अब पहरेदारी,
लूटमारी करती फिरे अब सरकार हमारी,
बाशिंदों के मुहँ पर जड़े अब सख्त से ताले,
गरीबी रहे हर जगह रोती,छीन गये निवाले,
बेरोज़गारी पर अब चढ़े जाए रंग सिफारिश,
अब कहाँ बरसती है मेरे खेतों पर वो बारिश,
मैं गर खोलता जुबाँ, तो बनते पुलिसिया केस,
मैं बैठा रोता हूँ, क्यों मर गया अब मेरा देश ..........
==मन वकील

Friday 7 September 2012

"खोया हुआ नसीब"

               
बुढ़िया की मोतियाबिंद से सजी आँखों में,
कम दिखाई देती परछाइयों,ओझल उजाला,
जिन्हें कल संजोये थी अपनी खोख में वो,
जिन्हें खिलाती रही थी वो भर भर निवाला,
वो आज कहाँ जा बसे,अब क्यों नहीं करीब,
धुंधली धुंधली लकीरों सा,खोया हुआ नसीब,
कूड़े के ढेर पर बैठे कुक्कर के संग वो नन्हे,
नन्हे हाथों से बीनते थे कागज़ के चीथड़े वो,
वो चंद चीथड़े भी आज है उनके तन पर भी,
चेहरे की टूटी मासूमियत भी छूटने को जो,
शक्ल पर अब बेबसी है जो आ बैठी करीब,
बदबू से लिपटे मासूमो का,खोया हुआ नसीब,
कभी भागती रहती यहाँ से वहां हो बदहवास,
वो चंद मुड़े कागज़ मुठ्ठी में,लेने न देते श्वास,
वो छोड़ चला गया उसे, अब घेरती उसे यह धूप,
बार बार आँखों में उभर आये बेबसी बन भूख,
बड़े बाबू की वो भूखी नज़रें,क्यों लगती करीब,
क्यों जिन्दा है वो सोचती, खोया हुआ नसीब ...
==मन वकील
                                     "खोया हुआ नसीब"
बुढ़िया की मोतियाबिंद से सजी आँखों में,
कम दिखाई देती परछाइयों को समेटे हुए,
जिन्हें कल संजोये थी अपनी खोख में वो,
जिन्हें खिलाती रही थी अपना भी निवाला,
वो आज कहाँ जा बसे,अब क्यों नहीं करीब,
धुंधली धुंधली लकीरों सा,खोया हुआ नसीब,
कूड़े के ढेर पर बैठे कुक्कर के संग वो नन्हे,
नन्हे हाथों से बीनते थे कागज़ के चीथड़े वो,
वो चंद चीथड़े भी आज है उनके तन पर भी,
चेहरे पर छपी मासूमियत भी होती ओझल,
शक्ल पर अब बेबसी है जो आ बैठी करीब,
बदबू से लिपटे मासूमो का, खोया हुआ नसीब,
कभी भागती रहती यहाँ से वहां हो बदहवास,
कभी चंद लिखे मुड़े से वो कागज़ मुठ्ठी में,
कभी आँखों में उभर आती बेबसी बन भूख,
जो छोड़ चला गया ऐसे, घेरती अब उसे धूप,
बड़े बाबू की वो भूखी नज़रें,क्यों लगती करीब,
क्यों जिन्दा है वो सोचती, खोया हुआ नसीब ...
==मन वकील