Tuesday 31 July 2012

सावन के अंधों के जैसे चहु ओर सब हरा ही दिखता है,
सरकारी औंधों बाबुओं नेताओं को सब मंदा ही दिखता है,
भूख से बिलखती है इस देश की वो दुखी जनता गरीब ,
अनाज पड़ा सड़ता है,गरीबी नाचती यहाँ बनके नसीब,
अब खेत कहाँ है बचे, दिखे बस यहाँ वहाँ कंक्रीट का ढेर,
सब्जी तरकारी भी अब मंडी में बिकती है सौ रूपये सेर,
अब खून क्या, अमीरों की बहुओं के लिए वीर्य बिकता है
सावन के अंधों के जैसे चहु ओर सब हरा ही दिखता है,
सरकारी औंधों बाबुओं नेताओं को सब मंदा ही दिखता है,
परियोजनाओं पर क्या हो खर्च, खर्च करते जो सरकारी अफसर,
हर साल नई नई गाडियों के संग मिलता, चमचों का बड़ा लश्कर,
नित बहे जाए गरीबों के हित में,सरकारी खजाने के काली सरिता,
सब बांटे जाये नेता और बाबू,गरीबों की उम्मीदों को लगे पलीता,
अब स्कूलों की बिल्डिंग फंड से, नेताजी का घर महल सा दिखता है ,
सावन के अंधों के जैसे चहु ओर सब हरा ही दिखता है,
सरकारी औंधों बाबुओं नेताओं को सब मंदा ही दिखता है,
ईमानदारों जो थे बाबू अफसर वो कर दिए बेवजह ही मुअत्तिल,
जो कुछ बचे है सरकारी दफ्तरों में, वो झेलते हर कदम पर मुश्किल
उन चमचों और चापलूसों को बांटते जाए वो पदम् श्री और पदम् भूषण,

जो गरीबों के नाम से बना एनजीओ,सरकारी अनुदान से खरीदे आभूषण,
अब यहाँ गरीबी के नाम पर, नेताओं का मगरमच्छी आंसू भी बिकता है,
सावन के अंधों के जैसे चहु ओर सब हरा ही दिखता है,
सरकारी औंधों बाबुओं नेताओं को सब मंदा ही दिखता है,
==मन वकील

Monday 30 July 2012

अरे, इन गुलामों के इस शहर में,
आज फिर इक गुलाम बढ़ गया,
कल तक था जो खुद्दार ऐसा,
वो जी-ह्ज़ुरों की तरह अकड़ गया,
जिस शख्स ने सीखा था कभी,
अपने दम से आसमाँ को हिलाना,
जो जिया पहेरेदार बन, खुद का,
ना हुआ था जिसका जमीर बेगाना,
वो शख्स ना जाने कैसे, अचानक,
रातोरात अपनी तरबीयत से मुकर गया,
अरे,इन गुलामों के इस शहर में,
आज फिर इक गुलाम बढ़ गया,
कभी रखता था जो कभी ऐसे,
अपने असूलों को जेवर सा सम्भाल,
वो खाता थे बेशक हर जगह ठोकरे,
पर था वो किसी रसूली माँ का लाल,
वो बेचकर वो सभी पुराने असूल,
अपने आप एक नए गहने में जड़ गया,
अरे, इन गुलामों के इस शहर में,
आज फिर इक गुलाम बढ़ गया,
इंकलाबी नहीं था पर ना था कम,
वो किसी जलते हुए इन्कलाब से,
जज्बों में भरे था वो आग इल्म की,
तर्कों का दरिया बहे जैसे किसी किताब से,
वो फाड़ कर उन तकरीरों के पन्ने,
नोटों की महक में वो कैसे जकड गया,
अरे, इन गुलामों के इस शहर में,
आज फिर इक गुलाम बढ़ गया,
==मन वकील
लघु से विशाल होते आसमान में,
कही कहीं छितराया,वो  मेघ दिखता,
बस दूर दूर उड़ता जाता वो, भीतर
अपने नमी संजोये यादों की,चलता,
कभी ओढ़ वो किसी पल ऐसे, मैली
एक चादर धुंधली सी, क्यों बदलता,
ठहराव की आस लिए वो मेघ यूही,
इक छोर से दूजे छोर,बस भटकता,
धरा मन में एक आस संजोये, कुछ,
मिलन को हो उद्धत,वो नहीं रुकता,
मिलन पवन से करने को वो मेघ,
कभी बिजुरी से कह, गर्जन करता,
बूंदों के आँचल में छुपने को,वो मेघ,
बिन अश्रु  जैसे नैन,भर भर रोता ,
लघु से विशाल होते आसमान में,
कही कहीं छितराया वो मेघ दिखता,

Wednesday 25 July 2012

कौन है? जो कभी पेड़ ना था,
जिसकी शाखों पर आ आकर,
कभी सपनों के पंछी ना बैठे हो,
या फिर मौसम की सर्द हवा,
आकर उसे कंपकपा न गयी हो,
या फिर तपते सूरज की तपिश,
उसकी छाल को जला ना दिया हो,
झड़ जाते होंगे उसके वो हरे पत्ते,
पीले हो होकर दुखों से मिलकर,
नमी आंसुओं की भी बहती होगी,
वो अहसास किया होगा महसूस,
सावन की बूंदों सी खुशियों का,
या फिर अचानक जल उठने का,
हर कोई यहाँ एक पेड़ बन जिया,
कोई पीपल बना रहा जीवन में,
कुछ बने रहे नीम से गुणों से भरे,
कोई ताड़ सा बन जिया ऐसे,
अलग अहंकार में अकड़ कर,
कोई बेल सा लिपटा रहा होगा,
सदा दूसरों के सहारे,घूमघूम कर,
कोई अमरबेल सा भी रहा होगा,
चूसता रहता है दूसरों को हमेशा,
हर कोई पेड़ है और पेड़ जैसे ही,
अपनी जमीन खोजता रहता है,
अपनी जड़े फैलाने के लिए हमेशा,
कुछ जमे रहते कई कई सालों तक,
कुछ एक जीते है कई युगों तक,
कुछ मुझ जैसे जमीन में धंसे-धंसे,
ढूंढ़ते रहते है एक जड़ सा विश्वास,
शायद आँधियों का सामना करते,
सदैब झुक झुक कर, नत-मस्तक हो,
शायद तभी जी जाते वो हर मौसम,    
तभी तो कहता हूँ मैं यह अक्सर,
कौन है? जो कभी पेड़ ना था,
==मन-वकील

Tuesday 17 July 2012

करत करत नक़ल, अब बालक पाए ज्ञान,
मास्टर जी ट्यूशन पढाये, दूर करें अज्ञान,
दूर करें अज्ञान, चलने लगी नयी परिपाटी,
पैसे से शिक्षा मिले,बिन पैसे वो कूटे माटी,
वो कूटे माटी,धनिक बढ़ते उन्नति की राह,  
विदेशों में भ्रमण करते,गहरी जिनकी थाह,
गहरी जिनकी थाह,अनपढ़ खोले यूनिवर्सिटी,
नीले पीले गाँधी जी से,हर डिग्री रहे बरसती,
डिग्री रहे बरसती, सरकारें अब लूटे वाहवाही,
शिक्षा को बेच बेच,निकम्मे खाए जाते मलाई,
कहे मन-वकील,बालकों,लो अब तुम ये ठान,
मनमर्जी की शिक्षा लूटों, बेच रहे सब संस्थान.....
===मन वकील    

Monday 16 July 2012

कैद किये हुए वो सपने,
आज भी झांकते रहते,
कभी फटी हुई शर्ट से,
कभी मैली बनियान से,
कभी कभी तो गिर पड़ते,
उसकी कुचली पतलून की,
फटी हुई जेब से धडाम से,
कितनी कोशिश करता वो,
अपनी थकी हुई उँगलियों से,
उन सपनो को रोकने की,
पर ना जाने कैसे, हर बार,
वो फिसल ही जाते हमेशा,
उसकी पकड़ से निकलकर,
कभी कभार वो रोकता उन्हें,
अपनी पथराई आँखों में रख,  
फिर कोई वजह, बेवजह ही,
आकर उड़ेल देती, अचानक
आंसुओं की भरी वो गागर,
उन आँखों के कोनों के रास्ते,
वो सपने बह जाते, तेज़ी से,
छोड़ जाते उसके दिल में,
दर्द के निशान, गहरे निशान,
वो बस चुपचाप खड़ा रहता,
शायद और सपने आने की,
इंतज़ार में युहीं रहता खड़ा ....
==मन वकील 

Sunday 15 July 2012

भाई है वो मेरा

जब वो छोटा सा था,शायद छोटा सा,
तब वो आकर मेरे कंधे पर चढ़ जाता,
जिद करने लगता कंधे पर लधे लधे,
भैया,खड़े हो जाओ,मुझे चाँद है देखना,
तब मैं उस बाल-सुलभ जिद के लिए,
उचककर खड़ा हो जाता उसे थाम कर,
और वो यूहीं मेरे कंधे पर बैठे हुए,ऐसे,
मेरे सिर को अपने हाथों से हुए कसे,
खिलखिलाकर वो चाँद देखा करता,
आज जब वो बड़ा हो गया है, मुझसे,
अब भी वो अक्सर चाँद देखने के लिए,
चढ़ जाता है यूहीं मेरे कंधो पर ऐसे,
बिना मुझसे कुछ कहे,बिन मुझसे पूछे,
कसकर जकड़ लेता वो मेरा सिर जैसे,
और अब खिलवाड़ भरी हंसी हँसता वो,
शायद मुझे रोंद, अब वो चाँद देखना,
उसकी फितरत में होने लगा है शुमार,
तभी मुझसे मेरी उंचाई छीन कर,वो,
खून के रिश्तों को निभा रहा, बस ऐसे,
और मैं बेजुबान सा कभी यूहीं बैठता,
या फिर उसके के कहने पर खड़ा होता,
भाई है वो मेरा,जिसे चाँद देखना है,
आज भी मेरे कन्धों पर चढ़ कर ऐसे....      
==मन वकील

ना मैं कोई पीरो मुर्शिद, ना मैं कोई हूँ फकीर,

ना मैं कोई पीरो मुर्शिद, ना मैं कोई हूँ फकीर,
हाड मांस का पुतला हूँ, और हाथों में चंद लकीर,
ना मैं बनूँ कायदे दरोगा, ना मुंसिफ ना वजीर,
खास नहीं मैं कोई यहाँ, ना मैं हाफ़िज़े तदबीर,
दर्द समेटे कभी सीने में,खुशियों की बनूँ तस्वीर,
कुछ वायदे रहूँ निभाता, कभी कोसता वो तकदीर,
ना मैं कोई पीरो मुर्शिद, ना मैं कोई हूँ फकीर,
हाड मांस का पुतला हूँ, और हाथों में चंद लकीर,
अंधियारे का भी डर मुझको, खौफजदा सी तामीर,
दुश्मनी का दामन ना थामूं,हाथों में न रखूं शमशीर,
कभी सहूँ तो कभी पुकारूं,कभी करता फिरूँ तक़रीर,
लाख चाहने पर टूट ना पाए,मन में बंधी हुई जंजीर,
ना मैं कोई पीरो मुर्शिद, ना मैं कोई हूँ फकीर,
हाड मांस का पुतला हूँ, और हाथों में चंद लकीर,
==मन-वकील

Saturday 14 July 2012

वो सूनी सूनी सी आँखें,
जो अब देखती है कम,
उनके भीतर से झलकता,
दुःख का वो गहरा समंदर,
कितने तूफ़ान झेल झेल,
अब शायद हो गया शांत,
बाट जोहती रहती हर-पल,
उस मेहमान का जो शायद,
मुड़कर वापिस भी ना आये,
जो कल तक रहा था अपना,
जो अपने ही खून से सींचा,
अपने ही शरीर से था जना,
आज नए नए रिश्ते जोड़,
गया पुराने रिश्तों को तोड़,
कोई है जो बैठी है इतने पास,
शायद उन आखों में बसी आस,
झूठी है वो आस, एक छलावा,
पर कमबख्त साथ नहीं छोडती,
रोज़ सुबह सूरज उगने के साथ,
आ बैठती वहीँ उन आखों में,
साथ ले आती अपने वो अक्सर,
पुरानी यादों को समेट कर ऐसे,
जैसे ही सूरज ढलने को होता,
वो भी गुम होने लगती वैसे वैसे,
घुल जाती फिर वो स्याह रात में,
पर वो बीती यादें वहीँ अड़ी रहती  ,
धकेलती रहती आंसुओं को नीचे,
उन सूख चुकी आँखों के कोनों से,
धीरे धीरे गालों की खुदरी सतह पर,
कल जिसकी ऊँगली थामकर, वो ,
रास्ते पर बड़े फख्र से था चलता,
आज वो उँगलियाँ इतनी है बड़ी,
जो छप गयी उसके बूढ़े चेहरे पर,
नाउम्मीदी तो है उसे अब हमेशा,
अपनी औलाद से,पर मोह है बाकी,
तभी तो वो बूढी आँखें तकती है रोज़,
उस नाशुक्र औलाद की राह, बेरोक .................
==मन वकील
मैं क्या हूँ? मैं क्या करता हूँ?
मैं क्यों करता हूँ अक्सर ऐसे?
कई सवाल कुलबुलाते रहते,
मेरे जेहन में, बार बार युहीं,
किस बात की झूठी आस है,
क्या उम्मीद का है फलसफां,
इक आह पीछा छोड़ जाती जो,
दूसरी जल्द ही घर कर लेती,
मेरे आंसुओं के दरिया में आकर,
सोच, क्या सोच है बस मेरी,
बीती यादों का कफ़न लपेटे,
बस उठाती रहती हर वक्त,
उनके साथ बिताये पलों का,
वो बोझ,जो हर रोज़ बढ़ता,
दिल कितना टूटे?क्या करूँ?
आखिर हर वक्त मरना भी,
मुझे रास नहीं आता है अब,
कोई कमी थी? या नहीं,
मुझे क्यों कोसता रहता?
अकसर वो, नाकामियाब मैं,
लोग कहते, छोड़ दे आगे बढ़,
पर जो खाल बन चिपका हो,
उसे तो मरने के बाद ही, मैं,
शायद अलग कर पाऊँ खुद से,
दुःख नहीं है, बस इक कमी है,
जो मुझे याद दिलाती रहती,
शिकस्त का वो तीखा अहसास,
हर बार ही क्यूँ मैं हार गया?
जीत न सका कभी भी मैं,
शायद जंग समझ लड़ता रहा,
और असल में थी वो जिन्दगी,
बस कोंधते रहते कई कई,
वो सवाल मेरे जेहन में अक्सर,
...........मन वकील 

Wednesday 11 July 2012

पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
हाथ में थामे कावंड, चाह नहीं अब कुछ और,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
अरे, शिव की ऐसी मन में लौ है उसने जगाई,
भूला सुध बुध, पड़े नीलकंठ की राह दिखाई,
जोर जोर से वो भागे,अपने घर को पीछे छोड़     
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
सावन लाये संग अपने वो कैसी पावन बेला,
शिव बसे मन, चले जोगी पथ पर ना अकेला,
कावंडमय हुआ नगर,चले शिव भक्तों का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
जन देख रहे अचरज में, कैसी शिव की भक्ति,
पग में चाहे पड़े छाले, पर मन में घटे ना शक्ति,
अरे, कैसी दुविधा,चले ना कोई पीड़ा का जोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन में धरे जोगी अपने, केवल एको बिचार,
शिव मेरे त्रिलोकपति, आन करेंगे मेरा उद्धार,
गंगाजल डाल शिवलिंग पर,थमा दूँ मन की डोर,
पहन गेरुए वस्त्र, चला जोगी गंगाजी की ओर,
मन सुमरे शिव नाम,होए रहा "बोल बम" शोर,
थिरके पग राह पर,जो नाचे मयूर सह घनघोर,
==मन वकील
इन्दर देव, अब सोये भाग जगाओ,
आओ उस बुढ़िया के घर आ जाओ,
झमझम बूंदें हर आँगन में बरसाओ,
स्याम बने बदरा ऐसा कुछ कर जाओ,
नैनों में अब काहे बरखा आने वाली है ,
सूखी घाघर बुढ़िया की क्यों खाली है?
हरे हरे सब मैदान भी हो गए है बंज़र,
पाषण भये सरोवर जल-विहीन निर्झर,
नदिया रोये अब, कैसे जाऊं मैं सागर,
तपती धूप ले जाए सब जल नभ पर,
पुष्पों की अब वेला कहाँ आने वाली है,
सूखी घाघर बुढ़िया की क्यों खाली है?
पीत भयी तपते नभ की भी पहचान,
हरे खेत जो थे अब दीखते है शमशान,
जंगल जले नित,अग्नि करे घमासान,
पवन बनी शूल जैसे,रंग बदले पाषाण,
सावन भुला राह,क्यों ऋतु हुई विकराली है?
सूखी घाघर बुढ़िया की क्यों खाली है?
चिपकी आंतें मुख सब हुए तेजहीन,
तन पर चलता स्वेद,बन चींटी महीन,
वसन लगे अवरोध, नग्न होय शालीन
अकड़ी काया,जीवन लगे क्यों अंतहीन,
क्यों ग्रीष्म मास की अवधि बढने वाली है
सूखी घाघर बुढ़िया की क्यों खाली है?
==मन वकील


 

Friday 6 July 2012

घिरघिर आये बदरा अब मोरे अंगना, रिमझिम रिमझिम बरसे फुहार,
राग दोष सबहु मिटे ब्याकुल मन के, जबहु पड़े तन पर जल की बौछार,
कडक कड़क बिजुरिया गरजे,घन झपट झपट भागे जैसे कोई अश्व सवार,
खिले पुष्प पादप भरे बहु रंग, पात पात हिलाए पीपल ज्यो गाये मल्हार,
झरत झरत बूंदें धरा पर अमृत सी, बाल बाल झूमे इत उत मुख रहे पुकार,
जन जन भये हर्षित हो तापमुक्त,निरत करे अपनौ आंगन देयो सुधि बिसार,
सूरज अब कही जाए छिपे श्याम पट महू,जल बूंदें करत भंग तासु अहंकार,
जीवन भरे रंग चहुदिश,खग चहके हर्ष ध्वनि सह,सावन करे अबहु मनुहार 

Thursday 5 July 2012

" रहिमन धागा प्रेम का "

सुबह सवेरे मिसेस शर्मा मचाई खूब तूफ़ान,

 शर्मा जी के पीछे पड़ करती रही घमासान,
पूरा मोहल्ला बेवजह लिया अपने सिर पर उठाय,
जो भी वस्तु हाथ धरे,वो शर्मा जी पर दीये जमाय,
मन वकील खड़ा देखे तमाशा,संग ये बुदबुधाय
मन वकील कहे "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",
घर से निकले जब काम पर, मन में भर सब धीर,
सड़क पर देखी बिन कारण, लोगो की वो ऐसी भीड़,
तनिक पहुंचे जो नजदीक, हुए देखन को उकलाय,
इक कार बाबू , दूजे बाबू को रहा लात घूंसे जमाय,
लोग खड़े उकसाते रहे, ना कोई रहा वाको समझाय
मन वकील सोचे "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",
जब पहुंचे कोर्ट में, दीखे अज़ब गज़ब सा वो केस,
भैया बहन पे दावा करे, बहन खींच रही भाई के केश
बापू के जायदाद के बंटवारे को, दोहु होत रहे अब भौंराय,
पब्लिक में एक दूजे को कोसे,दिए खून के रिश्ते भुलाय,
वकील अब सेंक रहे रोटी,बापू के दौलत रहे दोहु मिटाय,
मन वकील कैसे कहे, "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",

" रहिमन धागा प्रेम का "

सुबह सवेरे मिसेस शर्मा मचाई खूब तूफ़ान,

 शर्मा जी के पीछे पड़ करती रही घमासान,
पूरा मोहल्ला बेवजह लिया अपने सिर पर उठाय,
जो भी वस्तु हाथ धरे,वो शर्मा जी पर दीये जमाय,
मन वकील खड़ा देखे तमाशा,संग ये बुदबुधाय
मन वकील कहे "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",
घर से निकले जाब काम पर, मन में भर धीर,
सड़क पर देखी बिन कारण, लोगो की वो भीड़,
तनिक पहुंचे जो नजदीक, और देखन को उकलाय,
इक कार बाबू , दूजे बाबू को रहा लात घूंसे जमाय,
लोग खड़े उकसाते रहे, ना कोई रहा वाको समझाय
मन वकील सोचे "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",
जब पहुंचे कोर्ट में, दीखे अज़ब गज़ब सा वो केस,
भैया बहन पे दावा करे, बहन खींच रही भाई के केश
बापू के जायदाद के बंटवारे को, दोहु होत रहे अब भौंराय,
पब्लिक में एक दूजे को कोसे,दिए खून के रिश्ते भुलाय,
वकील अब सेंक रहे रोटी,बापू के दौलत रहे दोहु मिटाय,
मन वकील कैसे कहे, "अरे रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय",

Wednesday 4 July 2012

विद्रोह की पीड़ा

विद्रोह की पीड़ा, कभी देखी है आपने,

यदि नहीं, तो गौर करना अवश्य तुम,
किसी आतंकवादी की माँ के चेहरे पर,
स्याह चिंता के घेरों कैसे आन बसी हुई,
उस माँ की आँखों के लाल सुर्ख कोनों में,
जहाँ अब अश्रु सूख गए है बार-२ बहकर,
विद्रोह की पीड़ा, कभी देखी है आपने,
यदि नहीं, तो गौर करना अवश्य तुम,
किसी सिपाही की विधवा के माथे पर,
जहाँ अब बिंदिया की जगह एक चिन्ह,
जो उसके घिसने पर भी नहीं मिटता अब,
और जिसके बसंत अब पतझड़ बन गये,
विद्रोह की पीड़ा, कभी देखी है आपने,
यदि नहीं, तो गौर करना अवश्य तुम, 
उस पिता के खाली पड़े बूढ़े चेहरे पर,
जहाँ अब नाउम्मीदी ने घर कर लिया,
जिसकी लकड़ी की लाठी बार बार पूछती,
बता मुझे, मैं भली थी या तेरा अपना बीज,
विद्रोह की पीड़ा, कभी देखी है आपने,
यदि नहीं, तो गौर करना अवश्य तुम,
कभी झाँक लेना शहर के अनाथाश्रम में,
जहाँ कई मासूमों की किस्मत में पुत गई,
माँ बाप की अचानक हुई मौत की कालिख,
शहर में फटे बम की आग की तीखी तपिश से,  
===मन वकील

Monday 2 July 2012

अरे चन्द सिक्कों में बिकते ज़मीर को देखा,
बिन कपड़ों के बिकती हुस्न की तस्वीर को देखा,
मुल्क में निजाम है यारों अब करप्शन के जोर पर,
तभी संसद में बैठे शातिरों की तक़रीर को देखा,
सियासतदानो के हवाई सफ़र तो होते हर रोज़,
अब तो उनके चमचों की बनती ताबीर को देखा,
खेल के मैदानों में अब खेल कोई और खेलता,
किसी कोने में रोती खिलाडी की तकदीर को देखा,
कभी थानों में बिकती है कानून की अस्मत हर रात
अब तो कचहरी में लुटते इन्साफ बेनजीर को देखा
मत गिरा नज़रों से अपनी मेरी ईमानदारी को ऐसे,
बेशक तुने बईमानी के बढती हुई शमशीर को देखा,
===मन वकील