Tuesday 22 April 2014


 बुरे वक़्त से बीते वो सब लम्हें,
 रोज़ मन के कोनों से यूँ निकल,
 फेंकने जाता था नदी के किनारे,
 नदी के किनारों की गीली मिट्टी,
 उसकी फ़टी बिवाईयों में फंस जाती,

  कुछ मैल तो वो छोड़ आता था वहाँ, 
  नया मैल पैरों में सिमट घर आ जाता,
  जैसे जैसे वो मिट्टी सूखती रहती,
  मन में फंसे फाँस भी गहरे होते जाते,
  थे  बुरे वक़्त से बीते वो सब लम्हें,

Thursday 17 April 2014

          
 परन्तु जवाब में भारतीय पुरुष कहता है :-

तुम केवल देह तक ही क्यों सिमटी हो प्रिये। 
जब इस देह में अब आत्मा तुम्हारे नाम की। 

देह पर पीत हल्दी से अधिक गहरी गाढ़ी बहती,
मेरे देह में रुधिर के रक्तिमा लाली तेरे नाम की 

तुम तो मेहंदी रचा हाथों में मुझे याद करती हो प्रिये 
मेरे रुधिर के कण में रची बसी स्मृति तेरे नाम की ।

चुनरी ओढ़  कर जो रूप तुम दिखलाती हो प्रिये 
उसकी ओट में बसी धड़कन ह्रदय में तेरे नाम की ।

मांग में सिन्दूर है रचाया तुमने गहरा सा, प्रिये,
उनकी लालिमा बसी मेरे नेत्रों में तेरे नाम की 

यदि कभी किसी भी पल तुमसे जो होता दूर, प्रिये 
घर वापिस लाने को उद्धत करती, प्रेम भावना तेरे नाम की। … 

== मन वकील 

Tuesday 8 April 2014

 रुके हुए शब्दों को कौंच कौंच कर बाहर निकलना,
   अँधेरे से घिरे मन के कोनों से,टोहकर बाहर खींचना,
   सचमुच बहुत मुश्किल होता है मित्रों बहुत ही मुश्किल,
    
   कम्बख्त भावों के लबादें औड़ कर चुपचाप बैठ जातें,
   और आँसुओं की खुराक खुद को चुपचाप सींचते जातें,
   कभी कभी पुरानी स्मृतियोँ से गूँगे हो बतियाते रहते,
   बीते पलों की रंग बिरंगी या काली स्याही उड़ेलते रहते,
   और मैं मन वकील, कलम हाथों में लिए सोचता रहता 
   कि इन रुके हुए शब्दों को कौंच कौंच कर बाहर निकलना,
   सचमुच बहुत मुश्किल होता है मित्रों बहुत ही मुश्किल,