Sunday 25 December 2011

दीवारों पर लिखी इबारत की तरह,
जिन्दगी अब रोज़ पढ़ी जाती है मेरी,
कई कई बार पोता गया है इस पर,
चूना किसी और की यादों से गीला,
ना जाने क्यों? उभर आती है बार बार,
लिखी हुए इबारत ये, झांकती सी हुई,
चंद छीटें जो कभी कभार आ गिरते,
बेरुखी से चबाये किसी पान के इस पर,
रंगत निखर आती इसमें दुखों की युहीं,
अरमानों की बुझी काली स्याही से लिखी,
आज भी बता देती ये मेरे भाग में बदा,
पानी से मिटने की चाह भी ना जाने अब,
चाहकर भी कही ना जाने कहाँ गम है,
बस दिखती है तो ये मेरी जिन्दगी ऐसे,
दीवारों पर लिखी इबारत की तरह युहीं ....
==मन वकील

Friday 9 December 2011

जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
भावों की नैया रहे डगमगा,
मन के भीतर नहीं अहसास
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
संदूक में छुपा कर रखा है,
जो खेलता था कभी रास,
अवशेष है जैसे कोई राख,
ख़ामोशी लेती है मेरी सांस,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
कोनों में पड़े थे जो आंसू,
निकल करे लेते है अड़ास,
रोकने पर भी नहीं रुकते ये,
दिखलाकर पीड़ा की खटास,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
===मन वकील

Tuesday 29 November 2011

धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
सरकती और सिमटती कभी उस धूप को होते छाँव देखा,
उजालों से घिर घिर के आये, कभी स्याह अँधेरे ऐसे भी,
साँसों को बिलखकर रोते, मौत से मिलते दबे पाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
उम्मीदों के घरोंदें होते है बस, कुछ रेत से भी कमज़ोर,
आंसू मेरे बहा दे इन्हें ऐसे, टूटते इन्हें बस सुबह शाम देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
जहाँ ढूंढते रहते है हम, उनके पैरों के वो गहरे निशान,
उस दलदल को सूखते हुए,बदलते दरारों के दरमियाँ देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा,
कभी तो पूछ मुझसे यूँ तू,मेरे ऐसे बिखरने का वो आलम,
क्या बीती मुझ पर जब, पड़ते उलटे जिन्दगी के दाँव देखा,
धरातल से उठाकर हमने, कभी जो ऐसे अपने पांव देखा, 





Wednesday 9 November 2011

बिदेस गए प्रिये तुम, अब मोहू कैसो शरद
बांस फांस चुभन लगो, तन में जियो सो दर्द,
सीतल पवन नाही सुहाहे,छुवत रहे तस गाल,
स्याह हुई रतिया,धीमी तासु दुनी एहू चाल,
खग भी न करते, मौसे बतिया भूले कलरव,
नैनन अब बौर लगे, थके राह तकते जब-तव,
सेज लगे मोहे भरी, काँटों सो बिछी एक चादर,
परछाई मोहे भय करै,पीछे ध्वनित जो सरसर,
लौट आओ अब पिया, काहे खोज़त मुद्रा स्वर्ण,
जोबन बीतो तिस रोवत,बैरागी भयो अब मन ....
===मन वकील

Sunday 6 November 2011

मेरे सफ़ेद कपडे पे उछालता है क्यूँ ये कीचड़ ,
गर तुझे है अपनी पोशाक मैली होने का डर,
मैं अगर हूँ बुत-परस्त, तू भी ढूंढता है खुदा,
अज़ान या आरती,एक मंजिल पर राहें जुदा,
बात बस इतनी है जो मन-वकील सबसे कहे,
मान चाहे कैसे भी पर इंसानियत से दूर क्यों रहे

Wednesday 2 November 2011

मन में भरा बहुते विषाद,
करत रहो एहो बहु विवाद,
नेत्र सूखे अब अश्रु जो नाही,
केहू करे बखान अब जाही,
लेखन मोहे दिए इक धार,
झरत भाव इन शब्द भियार....
==मन-वकील 

महाज्ञानी महापंडित सबै देखे, हम जल भरते ऐसे,
भाग्य सो बड़ो नाही कोई,पछाड़ दियो जो सबहु जैसे,
जो होए सबल तो मिल जाए,माटी भीतर भी सोना,
जो होए धूमिल तो हाथ कमायो भी सबहु हो खोना,
अंधे जैसो दिखत नहीं कबहू, राह पड़ी वो सबरी मुहरे,
भाग्य बदा मिलतो सबहु चाहे कछु जतन कोऊ जुहरे,
कागा खाता रहे पकवान, हंस चलत बस भूख बिधान,
कूकर चाटे रस मलाई, और गैय्या सांगे कूड़े बहुबान,
देख मन-वकील एहो भाग्य की जस तस भाँती-२ खेल,
पाखंडी चड़त रहीं अब सिंहासन,भलो जावत रहे जेल ....
==मन-वकील

Monday 31 October 2011

कभी-कभी ऐसा भी है होता,
बुद्धि जागे और मन है सोता,
जहाँ व्यवहार हो इस मन का,
मस्तिष्क वहां धोवन है धोता,
कभी कभी ऐसा भी है होता,
रिश्ते संभालें या इन्हें हम तोड़े,
कब मित्रों का साथ हम छोड़े,
भावों पर क्षुधा का जोर है होता,
कभी कभी ऐसा भी है होता,

Saturday 22 October 2011

रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
आँखों में नशा, होंठो पे प्यार का सबब बनता है..
वो जो आ जाते है तो पल में सब ठहर जाए,
उनके आते ही खुशबू सी हर सु बिखर जाए,
हुस्न के उनके दीदार तो वो कमबख्त चाँद भी चाहे,
अठखेलियाँ करती है हवा, ये मौसम भी मुस्काये,
तन में मेरे हरारत सी का कुछ सबब बनता है
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
रौशनी फैले उनके नूर-इ-हुस्न की फिजाओं में,
रात आकर दुआएं मांगती रहने उनकी पनाहों में,
चाहू उनके मुखड़े पर, बस मेरे नाम की हो पुकार,
वो मुझे छू लेने दे, कर लूं मैं हुस्न के पुरे दीदार,
आज बस बातों से परे,खामोश आहट का सबब बनता है,
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
==मन-वकील
मैं था रंगरेज़ के हाथों में इक कपडे जैसे,
थामे था जो मुझको,वो हुआ रंगने को ऐसे,
मैं जो पल में था हल्का, सफ़ेद बादल जैसे ,
अब युहीं गहरा हो गया, ना जाने क्यूँ  ऐसे,
मासूमियत मेरी वो,अब सिमट गई हो जैसे,
अब खुद की पहचान ढूंढ़गा,मैं खुद में कैसे,
भरी भीड़ में था डर,मैल छूने पे जो मुझे जैसे,
अब घटा से मुझमे छाई, कई दागों की ऐसे,
विवादों से परे रहकर, जो मैं जीया था ऐसे,
अब घिर गया हूँ उनमे,निकलूंगा बाहर कैसे ....
==मन-वकील
उसके जिस्म की आंच आने लगती है
जब भी वो बैठती है आकर संग मेरे,
खुशबू उसकी मुझे बहकाने लगती है
जब सिमट जाती है ऐसे पहलु में मेरे,
उसके बालों से उठती वो भीनी सी महक,
मैं भूल जाता जब लग जाती गले मेरे,
उसके होंठो पे आज भी है मेरे चूमने के निशां,
आज भी बसती है छुप के इस दिल में मेरे.....
==मन-वकील

Friday 21 October 2011

गम से निजात कहाँ, अब चैन मिलता हमें अब कहाँ,
गंगा भी है अब सूखी,जो बहते खून के दरिया यहाँ वहां 
अरे जन्नत और जहन्नुम के फर्क को,ऐसे अब भूले हम,
तू क्या खुदा है, ना मिलने पे तेरे,फिर क्यूँकर करते गम,
नाराज़ है वो खुदा भी,जो मेरी बंदगी से भी नहीं है मानता,
मनाये किसे मन-वकील, रूठे खुदा को या तुझे, नहीं जानता
अरे दोस्तों को भुला कर, तेरी रौशनी को क्यूकर हम चाहे
गैरों की खाती हो तुम कसमें, फिर क्यूँकर ना तुझे भुलाए,
हम भूलने की चीज नहीं, खूब याद रख तू ऐ बेवफा सनम,
तुझे दिल से है मिटाया अब हमने, नहीं याद करते तुझे हम...
==मन-वकील

Wednesday 19 October 2011

राम जैसे श्रेष्ट नहीं यदि कभी बन पाए,
लखन जैसे आज्ञाकारी बन दिखलायों,
अंहकार के रावण का यदि वध न होवे,
तो भीतर दुष्कर्मों का मेघनाद ही गिरायों,
क्या भस्म करते रहते हो?ऐसे हर वर्ष,
जब स्वयं की बैतरनी यदि पार ना पाओ,
यहाँ वहां बींधते रहते जब क्रोध के बाण,
तन चाहो क्यों उजला, जब मन हो श्मशान,
प्राण बसाकर ऐसे मन को जीवान्त कर,
मुग्ध स्वयं से हो, नव दिशा आत्म रचाओ,
===मन-वकील

Sunday 16 October 2011

 प्रिये मित्र के लिए:-

कहने की बात थी वो उसे कहदी और सुना दी कब की,

जो दिल पे बन आई थी वो छुपाकर भी दिखा दी कब की, 
दुनिया की हवस में अपनी हस्ती ही मिटा दी कब की,
क्या कितना खोया अब दीन-ओ इबादत भुला दी कब की,
दिल लगाने की ऐसी सज़ा मिली, रूहे आतिश बुझा दी कब की,
अब नहीं फ़िक्र नहीं फनाह होने की, हर हसरत मिटा दी कब की,
काबे या इबादतगाह क्यूँकर जाए अब हम कभी, ऐ मेरे दोस्त,
जब इस दिल में उनके प्यार की वो मजार सजा दी कब की ,
एतिबार नहीं खोया खुद पे, ना खायी कभी भी झूठे कसमें हमने,
जब जहर-इ नफरत पीकर हर सुं, दीवानगी ऐसे लुटा दी कब की 
दफ़न कर दिए सब हुजूमे-गम भीतर, छुपाकर सभी हसरतें अपनी,
बस यार की राह तकते तकते, जिन्दगी अपनी लुटा दी कब की ....
==मन-वकील

Saturday 15 October 2011

महतो जी की वो दालान आज भी है भरी हुई,
खाटों व् हुक्कों के बीच ज़रा कुछ फंसी सी हुई,
शामिल है चंद कुर्सियां भी सरकंडे से बुनी हुई,
कई महफ़िलों की दास्ताँ समेटे कुछ सुनी हुई
पर लोगों के हजूम आते यहाँ कुछ भी कहते
रात बीतने लगती और धीरे धीरे जाते रहते,
रंगीनियाँ बदल जाती रात के अँधेरे से डरी हुई
महतो जी की वो दालान फिर भी रहती भरी हुई,
मोंटू चाँद रमण नितिन या खान या हो कोमल
सभी शायद आते कभी ना कभी यहाँ पल दो पल,
चौपाल सी लगती पर है अलग से कुछ पसरी हुई
महतो जी की वो दालान सदा रहती आई है भरी हुई,
==मन-वकील

Wednesday 12 October 2011


आज जब फिर से गुजरा,उस सड़क पर,
कई सालों बाद, जवानी के बीतते दौर में,
कुछ यादें झट से, समूचे मन में कौंध गयी,
वो सड़क नहीं बदली है आज भी वैसी ही,
जैसी पहले सी थी,मेरे कालेज के दिनों में,
वही गड्डे, वही बिखरे कंकर, उडती धूल,
कुछ नहीं बदला आज भी वैसा ही रहा है,
बदला है तो सिर्फ आस पास का माहौल,
वो अशोक के पेड़, जो ढांपे रहते थे इसे,
वो अब नहीं रहे, हाँ अब कंक्रीट के किनारे,
जो खा गए है उसके इर्दगिर्द की हरियाली,
संग में, कई नौजवानों के कुछ अरमान,  
मुझे याद है आज भी, वो बीते हुए कल,
जब मैं अपनी प्रेयसी की बिठाकर पीछे,
अपने पापा के उस स्कूटर पर, उन दिनों,
जानबूझकर निकलता था उसी सड़क पर,
और अचानक गड्डे में उछलता मेरा स्कूटर,
और वो कसकर थाम लेती मुझे बाहों से ,
और उसके उभारों की नरमी बस कर देती,
मेरी भीतर के रक्त को इतना गर्म और मस्त,
वो दिखने लगता मेरे कानों के लवों पर रेंगता,
और मन होता बस चुम्बन अंकित करने को,
वो मुझे डांटती,पर शायद कुछ और सोचती ,
वो उसके बाद और करीब हो जाती थी मेरे,
सड़क से गुजर जाने के बाद भी लिपटे हुए,
वो दिन शायद जीवन के सबसे सुखद दिन,
आज मैं फिर से गुजरा फिर उस सड़क पर,
वही गड्डे, लेकिन प्रेयसी अब साथ बैठी है,
साथ बगल की सीट पर, अब मेरे पीछे नहीं,
उसके हाथ मुझे घेरे नहीं है , बल्कि अब तो,
वो थामे है उसके उस मोबाइल को कसकर,
जो उसे मुझसे प्यारा लगता है और शायद हाँ,
पल में वो पल याद आते है मुझको सड़क पर,
क्या वो पापा का स्कूटर, ज्यादा सुखदायी था,
या फिर, मेरी यह बड़ी आरामदायक सी गाडी,
जो मुझे कर रही है वंचित उस क्षणिक सुख से,
इस सोच में डूबा मैं, अब भूलने लगा एकाएक,
सडक के गड्डे पर सिमटे अपने पुराने पलों को ...
==मन -वकील
इस जीवन का एक सार बना दो,
आज मुझे बलि पथ पर चला दो,
सत्य नहीं असत्य भरा इस घट में,
कोई कंकर मार इसे तोड़ गिरा दो,
रागों को बैरागी लेकर अब निकले,
बेसुरों से सब संगीत युहीं सजा दो,
कौवों को पहनाओं तमगे पुष्पहार,
कोयल को अब पत्थर मार भगा दो,
गिद्दों के संग खायो बैठ ये निरामिष,
ज्ञान हंसों को अब यहाँ से उड़ा दो,
रहने दो अब ये बालाएँ केवल नग्न,
इनके वस्त्र अब हरण कर बिखरा दो,
रोने दो अब भूखे मानव को बस ऐसे,
अन्नित खेतों पर अब कंक्रीट बिछा दो,
कहाँ क्रांति ला पाओगे अब तुम मित्रों,
बस मेरे ही विद्रोही स्वर को मिटा दो ....
===मन-वकील    

Monday 10 October 2011


आँखों की देखी, कुछ मैं ऐसी देखी,
चाहे रही वो कुछ अटपटी अनदेखी,
पर सिखा गई मुझे वो सब मन देखी,
चित्रपट सी घटित हुई जो हम देखी,
दुर्भाग्य थी या आकस्मिक जो देखी,
अपनों संग विश्वास, भली भाँती देखी,
कड़वे नीम सी बीती जो और ने देखी,
इच्छा अनिच्छा के दौर में घूमे देखी,
मन की परतों पर चढ़ी धूल भी देखी,
कभी आँखों से बरसती वर्षा सी देखी,
कभी मन में रिसती नदी बनती देखी,
पीड़ा के उदगम में कही सिमटती देखी,
कभी नन्ही बेटी सी मुस्कराती भी देखी,
बहुत देखी अज़ब गज़ब सी होती यूँ देखी,
हाथों से रेत सी फिसलती जिन्दगी देखी ....
====मन-वकील

Friday 7 October 2011

कुछ तस्वीरें आज भी है मेरे जेहन में,
जो कौंधती रहती है एक चमक के जैसे,
अब रुकता नहीं सिलसिला उन यादों का,
रह रह कर घटा सी गरजती हो कही जैसे,
यह समय की आंधी शायद सब कुछ उड़ादे,
पर साफ़ करेगी मन की धूल-परतों को, कैसे,
औंधे मुहँ रोने से भी नहीं छुपती यह आवाज,
चीखता जो है अब मेरा दिल,बार बार ऐसे,
अरे बदलते मौसम के संग अब तपिश भी गई,
जो कभी समेटे थी कभी उनको मेरे भीतर जैसे,
अब धुआं उठता रहता है बस एक लकीर बनके,
जहाँ जलते थे हमारे प्यार के अलाव से कैसे,
उठ मन-वकील ठिकाना ना बना, अब अपना
हर जगह,जब जिन्दगी हो इक सफ़र के जैसे....
==मन-वकील
कुछ तस्वीरें आज भी है मेरे जेहन में,
जो कौंधती रहती है एक चमक के जैसे,
अब रुकता नहीं सिलसिला उन यादों का,
रह रह कर घटा सी गरजती हो कही जैसे,
यह समय की आंधी शायद सब कुछ उड़ादे,
पर साफ़ करेगी मन की धूल-परतों को, कैसे,
औंधे मुहँ रोने से भी नहीं छुपती यह आवाज,
चीखता जो है अब मेरा दिल,बार बार जो ऐसे,
अरे बदलते मौसम के संग अब तपिश भी गई,
जो कभी समेटे थी कभी उनको मेरे भीतर जैसे,
अब धुआं उठता रहता है बस एक लकीर बनके,
जहाँ जलते थे हमारे प्यार का अलाव से कैसे,
उठ मन-वकील ठिकाना ना बना, अब अपना
हर जगह,जब जिन्दगी हो इक सफ़र के जैसे....
==मन-वकील

Saturday 1 October 2011

इस वक्त की है अज़ब दास्ताँ,
ढूंढे नहीं मिलता कही आशियाँ,
रातों को चिरागों से रौशनी नहीं,
आंधियों का अब जोर चलता यहाँ,
फितरत ही बदलती,सभी और यूँ ,
गुनाहों का दौर अब चलता यहाँ,
दोस्ती नहीं,मिले तिजारती अक्स,
कीमत से मिलता प्यार हर जगह.....
==मन-वकील  

Sunday 25 September 2011

प्रिये बेटी दिवस पर समस्त फोरम सद्स्यायों का स्नेह सादर सहित अभिनन्दन :
वो कभी माँ है बेटी है और बहन भी है ,
वो प्रेमिका है वो संगिनी जीवन भी है,
वो कई कई रूप में मेरे सामने है अवतरित,
वो मुझे मुक्त करदे ऐसा पापदहन भी है,
कभी शक्ति स्वरूपा, कभी एक बरगद है,
वो जो जननी पालिता है उसे नमन भी है////

Saturday 24 September 2011

वो जो पेश करते है , अक्सर,
मेरे गीतों को अपने नाम देकर,
वो मेरे दोस्त थे साथ थे अकसर,
अब मुझे बेचते है इलज़ाम देकर.....
वो सिखाते रहे पल पल अक्सर,
चलाकियाँ,ज़माने का नाम लेकर,
अब तो सामने भौंकते,वो अक्सर,
वो जो हमारे पाले थे, रह रहकर,
मन-वकील, अब तो होता ये अक्सर,
आस्तीन में सांप से निकलते रहबर....

वो जो पेश करते है , अक्सर,
मेरे गीतों को अपने नाम देकर,
वो मेरे दोस्त थे साथ थे अकसर,
अब मुझे बेचते है इलज़ाम देकर.....
अब तो लगता है डर, हमें
अपने साए से भी अक्सर ,
क्या जाने किस मोड़ पर,
एक और मन वकील मिल जाए..


Friday 23 September 2011

श्री कृष्ण है जो भीतर मेरे एक विराट स्वरुप,
वर्षा ऋतु है और कभी जेठ माह की तीव्र धूप,
जो विरल है कभी तो कभी सरल और अनूप,
अभिव्यक्ति से है परे कभी,वो अनुपम एक रूप,
जल में है कभी वायु में, या धरा के है अनुरूप,
कण कण में वो बसा, जीवन मरण के प्रारूप,
बंसी की धुन में, और कभी मृदंग के ताल भूप,
गोपियों संग नाचे,और कभी जसोदा सो सहुप,
श्री कृष्ण है जो भीतर मेरे एक विराट स्वरुप,
रक्त बीज हो गया है अब
मन के विकारों का बोझ,
जितना भी वध मैं कर दूँ ,
बढ़ता कई गुना हर रोज,
शांत रहकर भी है अशांत,
जो व्याकुलता है बरसती,
नेत्रों अंगारों से अब लगते,
आत्मा जैसे हो अब तरसती,
क्या कहूँ ? मैं हूँ परिवर्तित
बन गया एक टूटा सरोज,
रक्त बीज हो गया है अब
मन के विकारों का बोझ....
===मन-वकील

Friday 9 September 2011

कालेज के उन दिनों में,
क्या दिल की हालत होती,
हम मदहोश हुए रहते,
और आँखों में शरारत होती,
नोटबुक पे लिखते थे, हम
सबक,जब संग कलम होती,
ब्लैकबोर्ड पर दिखती अक्सर,
तस्वीर, जो दिल में बसी होती,
नोट बुक पर तो उतरते थे सीधे,
अक्षर, पर याद में उनके बदल जाते,
क्या कहें हम अब दोस्तों वो दिन,
जब आखिरी पन्नों में उनका नाम दोहराते...
====मन-वकील

Monday 5 September 2011

मेरे नसीब में चाहे हो कांटे, पर मेरे यारों को,
फूलों की महफ़िल मस्तानी दे मेरे मौला,
भूख के नश्तर उन्हें चुभ ना पाए मेरे यारों को,
दावतें रंगी दस्तरखाने जमानी दे मेरे मौला,
झूठ फरेब के जाल अब छू ना पायें मेरे यारों के,
दिल में सच के रंग आसमानी दे मेरे मौला,
तरस गयी अब आँखे तेरे दीद को मेरे यारों की,
पत्थर से निकल दरस सुल्तानी दे मेरे मौला....

Sunday 4 September 2011

क्या हूँ ? और क्या बनूँगा मैं,
इस बात की नहीं परवाह मुझे,
कुछ सरल सी है मेरी जिन्दगी ,
जो दौड़ती है पथरीली राह पर,
चिंता कभी नहीं मुझे, भविष्य की ,
पर खा गया मुझे मेरा निवर्तमान,
खोये भूत में खोकर, अपना आज,
मैं रहता आया उदासी की छाँव में,
तरलता मन की उमंगों में रही बसी,
और मैं बहता रहा दूसरों की राहों में,
प्रेम कैसे करूँ मैं, ऐसे मीरा बनकर,
जो मिलते नहीं जो कृष्ण बांहों में,
सदैव रहा हूँ प्यासा एक चातक सा,
ढूंढ़ता हूँ मैं जिन्दगी, खोयी राहों में,
==मन-वकील

Wednesday 24 August 2011

वो लड़ते है उसके नाम पर अब उसे नहीं है खोजते,
वो महसूस करते है उसे पर, अब उसे नहीं सोचते,
चहु ओर फैली  हवाओं से उजालों तक वो ही छाया है,
करिश्मे उसके अज़ब, कभी रूप धर कही बिन-काया है,
कोई बोले उसे राम या कृष्ण कोई हो शिव ॐ से ही शुरू,
कोई सजदे कर बोले अल्लाह, कोई उच्चारे हे वाहे गुरु,
कभी ईसा है वो मेरा कभी गौतम बनके धरती पर आये वो,
कभी निरंकार है कभी अवतारों का ही कोई रूप सजाए वो,
वो है तो फिर बहस करने से, क्यूँकर ज्ञान हम ऐसे बघारे,
अरे वो है चहु ओर, हर जगहयहाँ वहां इर्द गिर्द बसता हमारे,
=====मन-वकील
चाँद सिक्कों के बदले बिकती है आज ईमानदारी,
यहाँ चलती है यारों सरकारी महकमों में इनामदारी,
कहीं कोई रुकावट हो या हो कोई भी अड़चन कैसी भी,
सुना दो खनक सिक्कों की,हल हो मुसीबत जैसी भी,
कही कही नहीं अब तो, हर शाख पर उल्लू ही बैठा है,
यहाँ माई-बाप है रिश्वत, चहु ओर भ्रष्टाचार ही ऐंठा है, 
अब अंधे की लाठी बनकर, सिर्फ पैसा ही सब चलता है,
कहाँ कहाँ मिटाए इसको, अब भ्रष्टाचार चहुओर पलता है...
===मन-वकील

Sunday 21 August 2011

चारों ओर है हाहाकार, यहाँ अब हर शख्स रोता है,
फैली है बेरोज़गारी, पढ़ा- लिखा नौजवान रोता है,
बैठे है पर फैलाएं यहाँ, चहु ओर गिध्दों के झुण्ड,
धरा बंजर हो गयी है, और सूख गए जल के कुण्ड,
हवाओं में भी है जहर,प्रांतीयता और क्षेत्रवाद से भरा,
अपराध अब संसद में पलता है, चाहे छोटा या बड़ा,
बनकर हमारे खुदा, वो अब हमें ही को लुटते हर-पल,
भरे है अब बाहुबली सरीखे नेता, चाहे कैसा भी हो दल,
भ्रष्टाचार की चादर, अब हर सरकारी बाबू तान कर सोता,
बंगले है कारें है, चाहे इस देश का जन-मानस भूख से रोता,
सिक्का हो कैसा भी, बस सरकारी लोगों का ही है चलता,
संसद या न्याय-पालिका,सभी जगह इनका ही जोर है चलता,
किसें है खबर, अब कहाँ हमारी आजादी है अब खोयी ?
कौन जानता है किसकी आँखें उसे ढूंढ़ते हुए है कितनी रोई?
भुला बैठे है अब हम अपनी भारतीयता की एक वो पहचान,
जिन्होंने दी शहादत इसके लिए भुला दी उनकी भी पहचान,
अब तो इंतज़ार है,कब चलेगी इस मुल्क में बदलाव की आंधी,
जागो ऐ मेरे यारों, बनके अब अन्ना हजारे और महात्मा गाँधी ........
==मन-वकील

Friday 19 August 2011

दुआओं के लिए भी उठाया करों अपने ये हाथ मेरे दोस्त,
क्यूकर उठ जाते है ? ये अक्सर किसी सितमगर की तरह,
मांगने से अच्छा हो , अगर किसी काम में लग जाएँ ये दोनों,
वर्ना टटोलतें रहेंगे औरों की जेबें, किसी जेब-तराश की तरह......
===मन-वकील

Sunday 14 August 2011

अगर जिया हूँ यहाँ मैं,
तो डरपोक बनकर ऐसे,
कोई बात मुहँ पे कह दूँ,
इतनी हिम्मत हो कैसे,
सच बोलने पर मिलती
यहाँ सिर्फ पत्थरों से सज़ा,
झूठी तारीफों और चापलूसी ,
दिलवाती है यहाँ रौनक-मज़ा,
मैं कोई ईसा या गाँधी नहीं हूँ,
लाऊं बदलाव ऐसी आंधी नहीं हूँ ,
मुझे जीना है यहाँ अभी और,
चाहे ला दूँ झूठों के कही दौर ,   
मुझे नहीं बनना यहाँ सत्यवादी ,
रहने दो मुझे गुलाम, नहीं चाहिए आज़ादी....
===मन-वकील
जय हिंद जय भारत जय हिंद जय भारत
जय भारत के जन-मानस जय भारत की सेना,
जय भारत के सभी प्रदेश, जय भारत की नदियाँ ,
जय भारत के सिन्धु और द्वीप, जय भारत का नभ
जय भारत के परबत पहाड़ और जय भारत की धरा
जय भारत के अवेशष और जय भारत के संत फकीर,
जय भारत रहें सदा,कन्याकुमारी से लेकर तक कश्मीर,
जय भारत के चौकने सैनिक, जय भारत के वन-विराम,
जय भारत का अरुणाचल हिमालय और मुंबई से आसाम...
====जय भारत माता की ....जय हिंद .....
===सभी मित्रों को भारत के स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं ....

मैं अभिशप्त नहीं हूँ

मेरी देह पर उनके रेंगते हुए हाथ,
आज भी भय से सिरहन दौड़ जाती,
कितनी बार उठ बैठती हूँ मैं रात रात,
और वो वीभत्स हंसी ठहाके सुनाई देते,
वो पीड़ा का अहसास मेरे भीतर जागता,
और शरीर के दर्द से ज्यादा मन में पीड़ा,
रोष भी शायद अब अश्रु बन के निकलता,
कुछ कहना चाहती हूँ मैं चीख चीख कर,
इस खोखले समाज के निर्जीव जीवों से,
किन्तु यह क्रंदन तो तब कर चुकी थी मैं,
जब मेरी देह को रेत की तरह रोंदा गया,
अब तो केवल चिन्ह शेष बचे है घावों से ,
और मैं अभिशिप्त हो गयी हूँ बिना दोष के,
बलात्कार मेरी देह से नहीं हुआ था केवल,
संग मेरे भीतर की आत्मा को भी रोंदा गया,
और एक ख़ामोशी आकर अब बस गयी,
ना जाने कहाँ से मेरे भ्रमित अस्तित्व पर,
और मैं ढूंढ़ रही हूँ, अपनी खोयी अस्मिता को,
इधर उधर सब जगह, इस निरीह संसार में ,,,,,
==मन वकील

 

Saturday 13 August 2011

कुछ रेशम के धागे है जो बाँधते है , प्रेम का एक सच्चा नाता,
वो छोटी बहन या बड़ी दीदी के संग अविरल स्नेह को जगाता,
कलाई पर बंधकर जो ना जाने कैसे मन की गहराई को पाते,
जो व्यापारिकता से हटकर , भाई बहन के रिश्तों को सजाते,
जब वो दूर हो जाती तो कैसे मेरे नेत्रों से बहने लगती अश्रु धारा,
जिस बहन के संग खेला, कैसे भुला दूँ वो रिश्ता प्यारा हमारा,
आज फिर उसी रिश्तों को मज़बूत करने का फिर वो दिन है आया,
सदा नमन है उस देव तुल्य को जिसने रक्षा बंधन का दिन है बनाया......
======मन वकील
कुछ रेशम के धागे है जो बाँधते है , प्रेम का एक सच्चा नाता,
वो छोटी बहन या बड़ी दीदी के संग अविरल स्नेह को जगाता,
कलाई पर बंधकर जो ना जाने कैसे मन की गहराई को पाते,
जो व्यापारिकता से हटकर , भाई बहन के रिश्तों को सजाते,
जब वो दूर हो जाती तो कैसे मेरे नेत्रों से बहने लगती अश्रु धारा,
जिस बहन के संग खेला, कैसे भुला दूँ वो रिश्ता प्यारा हमारा,
आज फिर उसी रिश्तों को मज़बूत करने का फिर वो दिन है आया,
सदा नमन है उस देव तुली को जिसने रक्षा बंधन का दिन है बनाया......
======मन वकील

Thursday 11 August 2011

नहीं हूँ आकाश मैं, पर कुछ अंश उसका भी समेटे हूँ,
नहीं हूँ जल का अभिप्राय, पर कुछ अंजुली भी समेटे हूँ ,
वायु भी नहीं है तेज़ मैं, पर कुछ उड़ते भाव समेटे हूँ ,
धरा सा विशाल नहीं रहा मैं, पर कुछ कण भी समेटे हूँ,
ओज़स शायद भरा हो कुछ भीतर मेरे, जो प्रकाशित हूँ मैं, 
पावक में देह से राख बदल जाऊँगा, कुछ पञ्चभूत सा हूँ मैं , .......

Tuesday 9 August 2011

" कुछ शब्दों में समेटना चाहता हूँ मैं सारा नीला आकाश,
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चाहू अगर रोकना, बहते मन के भावों की नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है" ......
" कुछ शब्दों में समेटना चाहता हूँ मैं सारा नीला आकाश,
फिर भी ना जाने क्यूँ, पैरों तले जमीन खिसका जाती है ,
कभी चाहू अगर रोकना, बहते मन के भावों के नदी को,
फिर भी ना जाने कैसे, रेत सी हाथों से जिन्दगी फिसल जाती है" ......

Sunday 7 August 2011

कब तक ना मानोगे, तुम उसके होने को,
बस कोसते रहोगे, जब असफल होने को,
क्यूँकर हर वसन से ढंके ना जाते है तन,
है वो हर और, फिर क्यूँकर भटकता मन,
नजारों में बसा है सभी, दिखाता सब वो रंग,
कोई पत्थर में खोजे, कोई सजदे का ले ढंग,
कोई दीये जलाकर मना ले, तो कोई लोबान, 
अरे वो देखता है हमको, बनके निगेहबान ...............
=====मन-वकील
समस्त बंधन मुक्त होकर ,
वो रहा उसके मोह में कैदी,
छुट गए सब नाते संगी,
पर उसको ना छोड़ पाया,
उसके प्रेम का वो तेज़ रंग
चढ़ गया उसकी आत्मा पर,
जिसने उसे जल अग्नि वायु,
आकाश से पराभूत करते हुए,
उसकी यादों से अनुभूति देकर,
स्मृतियों से युक्त जीव बना दिया......
======मन वकील

Saturday 6 August 2011

वहां बिदेसों में मनाते है सिर्फ एक दिन साल में अपनी दोस्ती के नाम,
बहुत मसरूफियत है वहां, सिर्फ दोस्तों के लिए बचती है एक ही शाम,
यहाँ मेरे देश में, हर दिन और  हर रात होती है सिर्फ यारों के ही नाम, 
यहाँ हर दिन हैं फ्रेंडशिप डे, मिल बैठ कर पीते है रोज़ दोस्ती के जाम .........

========दोस्ती जिंदाबाद.........
उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
न जाने क्यों मुड़ मुड़ कर कदम,
फिर बढ आते उसी राह पर,
और नैन खोजते रहते यहाँ वहां,
उसकी वो मोहिनी मूरत को,
और बैचैन सा हो उठता था मैं,
सुध नहीं रहती अपने तर्कों की,
और वो सारे प्रण भुला बैठता,
मैं एकाएक ना जाने क्यूँकर,
अशांत मन अतृप्त काग सा,
और कोई औंस की बूंद भी,
नहीं मिलती किसी प्रेयसी से ,
फिर मैं नए प्रण लेता, हारकर,
केवल यही धूल पुनः छांटने को,
सोचता रहता सदैव, मैं मन में ,
 उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
====मन-वकील

Saturday 16 July 2011

वो है तभी तो मैं हूँ..
सर्व-विद्यमान है वो,
कभी किसी रूप में आ,
कभी कोई खेल दिखा,
वो कर देता है मुझे,
एकाएक विस्मित सा,
ना कैसे कर दूँ उसको,
या उसके अस्तित्व को,
जब वो सदैव रहता है,
मेरे इर्द-गिर्द, चहु ओर,
मेरी प्रत्येक क्रिया को,
वो निर्धारित करता है,
ताकि अँधेरे से मुक्त हो,
और ज्योति से युक्त हो,
मैं बना रहूँ एक इंसान,
मेरी माँ बनकर कभी,
कभी पिता के रूप में,
कभी प्रिये मित्र सा हो,
कभी मेरी नन्ही बेटी,
ना जाने किस किस ,
रूप को धरकर वो, सदा,
मुझे एक डगर पर चलाता,
और तुम कहते हो कि,
वो मेरा बंधू मेरा सखा,
ईश्वर है या फिर नहीं ,
====मन-वकील  

Monday 11 July 2011

कुछ पल में गुजर जायेगी , ना जाने कैसे ये जिंदगानी,
कुछ ख्वाब अधूरे होंगे, कुछ रह जायेगी अधूरी कहानी////
चंद साँसे जो चलती है अब भी मेरे सीने में धीरे अदनानी,
दूर जायेंगी वो भी एक दिन, छोड़ इस बदन की बहती रवानी///
कहीं दूर बसेरा हो शायद, रूहे-खाक का, ना जाने कहाँ ऐ-दिल,
बस देखते रह जायेंगे यार दोस्त, भर भर अपनी आँखों में पानी... ......
=====मन वकील
रात भर बैठ कर अब रोता है वो,
याद कर कर अपने बीते अतीत को,
कैसे सजते थे वहां उसके रौनक मेले,
लोग जलते थे देख कर,उसके नसीब को,
जब खुशियाँ मुड़ वापिस आती हर-पल,
ढूंढ़ने उसे या शायद चूमने उसकी दहलीज़ को,
वक्त का पहिया घूम घूम कर तेज़ भागता,
लौट कर आने को हो, खोजता किस तरतीब को,
वो हर शह को समझता था अपना गुलाम,
लुभाता था वो एक सा, अपनों को या रकीब को,
रातों के काले साए भी नो छू पाए , उसे कभी,
रौशनी के दौर चलते सदा, होकर उसके करीब को,
पर जैसे बदलते है यारों मौसम के भी हर दौर,
पड़ गए उसके नसीब के धागे भी कुछ कमज़ोर,
रातें भी आने लगी अब होकर स्याह उसके करीब,
टूट गए थे सब ख्वाब, रूठ गए सब उसके नसीब ./....
==मन वकील

Saturday 9 July 2011

सजाते रहना बस ये महफ़िलें ऐसे ही, न आने देना उन वीरानों को,
मुझ बस युहीं रुखसत कर देना चुपचाप, ना ढूँढना मेरे ठिकानों को ...
===मन-वकील
वो बैठा रहता है अब सड़कों पर, बिना रफ़्तार के यारों,
सुनाई भी नहीं देता उसे अब शोर आने जाने वालों का,
बहरा तो नहीं था वो पर अब ना जाने क्यूँ नहीं सुनता,
आँखें पथरा सी गई है देख हजूम आने जाने वालों का,
कोई तो शह सी होगी, जो रखे है उसे बांधें इन सड़कों से,
वर्ना कब लगता था उसे भला, रेला आने जाने वालों का
तकदीरों के फैसले उसे, ना जाने कहाँ से कहाँ ले जाए,
बस अब बनके रह गया वो,इक जोड़ आने जाने वालों का ....
---मन-वकील
वो बैठा रहता है अब सड़कों पर, बिना रफ़्तार के यारों,
सुनाई भी नहीं देता उसे अब शोर आने जाने वालों का,
 मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कभी हो जाते है कुछ धुंधले, कभी बस जाते अँधेरे,
कभी बह जाते है वो मेरी पलकों से संग आंसुओं के,
कभी बस पड़े रहते युहीं, रहकर नम से, ठहरे ठहरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कभी चेहरे नज़र आते है उनमे कभी परछाई से गहरे,
कभी एक ढलती रात से होते और कभी उजले से सवेरे,
कभी बस टूटने को होते, कभी बस आगोश में रहते मेरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे,
कहीं तो शोर करते है ये, कभी ख़ामोशी से करते बसेरे,
कभी पुकारते है मुझकों, दिखाकर यादों के फूल वो तेरे,
कभी मासूम से होते, कभी कुरेदते ये, वो जख्म भी मेरे,
मेरी पलकों के कोनों में छुपे है ख्वाब कुछ सुनहेरे, .....
====मन-वकील

Tuesday 5 July 2011

चंद सिक्कों में बिकती है यहाँ ईमान की हर शह यारों,
खरीददार है अब जितने, उतने ही बिकवाल यहाँ है अब //////
मत भौंक मेरे आगे , तू अब मुझको तो जाने भी दे,
कहीं तेरी इस आदत से, मैं भी भौंकना न शुरू कर दूँ
इस शहर की रातों में अन्धेरें में, अब उल्लू से भी उड़ते है ,
कुछ अनजान बने रहते है, कुछ बस अपनों से लड़ते है....
इन लूटे हुए शहरों की, यारों बस इतनी से कहानी है ,
सब टूटी हुई सड़के और नयी इमारतें हो गई पुरानी है

Saturday 25 June 2011

मन वकील के मन की आवाज़-1....

प्रिये मित्रों ...आज कई दिनों बाद वापिस दिल्ली लौटा हूँ ,,पुरे परिवार के साथ शिमला गया हुआ था...मन काफी प्रसन्न है...माता पिता साथ गए थे...मित्रों माँ बाप के मरने के बाद उनके श्राद पर पैसे खर्चने से बेहतर है की उनके जीते जी उन पर खर्च किये जाए और उन्हें कुछ पल की ख़ुशी दी जाये....माँ बाप के चेहरे की ख़ुशी कुछ पल में पूरा जीवन सफल हो जाता है...वो मन की संतुष्टि ही कुछ और तरह से मन को आनंदित करती है.....सच में एक मेडल जितने से अधिक ख़ुशी होती है......आपका मन-वकील

Thursday 16 June 2011

फितरत-2

" हाल छुपाकर रखा करों दोस्त, सीने में कही इस तरह,
लोग ना जान पाए तेरे दर्द का समंदर, कुछ इस तरह,
जुबाँ का काम लो मेरे दोस्त, अपनी आँखों से इस तरह,
अरे, अल्फाज़ निकले बस बहकर कुछ आंसुओं की तरह "

फितरत

यारों जुबाँ खोल कर ज़रा देखा, तो फितरत सामने आ गई,
उनके चेहरे की रंगत बदली अचानक, नफरत सामने आ गई,
बस खामोश रहकर सब देखते रहे, जब हम दुनिया की रंगत,
सजने लगी फिर यारों की महफ़िल,चाह-इ-हसरत सामने आ गई...

छोटू

अरे छोटू, कहाँ मर गया है, हरामजादे,
चल जा उस टेबल पे कपड़ा मार जल्दी,
वो भागता उस टेबल की और तेजी से ,
और ये गालियाँ अब उसकी किस्मत है,
उस टेबल के आसपास कुर्सियों पे बैठे,
वो भद्र-पुरुष और नारियां, न जाने कैसे,
अपना वार्तालाप बीच में छोड़ अचानक,
छोटू को देख, नाक मुहं ऐसे सिकोड़ते ,
जैसे किसी कूड़े के ढेर पर हो वो बैठे,
उसके सफाई वाले कपडे से आती दुर्गन्ध,
उन्हें उस छोटू के भीतर से आती हुई लगती,
छोटू के वो छोटे हाथ एकाएक, तेज़ तेज़ ,
उनकी टेबल पर छपी चिखट को मिटाते,
और उधर उसका वो बचपन भी धीरे से ,
मिटता जाता, चुपचाप, बिना किसी शोर के,
और वो भद्र मानुस और मेमसाब, देख कर सब,
ऐसे अनजान से बने रहते, मूर्ति के जैसे, जड़वत,
जैसे उनके अपने आँगन में बालावस्था न हो,
और फिर वो भद्र पुरुष, प्रकट करते अपने चरित्र,
चीख कर कहते , जैसे वो हिमालय पर हो चढ़े ,
अबे छोटू , जा जल्दी से दो स्पेशल चाय ला,
और हाँ, साले उँगलियाँ गिलास में मत डालियो,
जैसे छोटू इन भद्र मानुस का कोई गुलाम हो,
और छोटू के कदम मुड जाते, भट्टी की ओर,
जैसे वो चाय लेने नहीं, खुद को उस भट्टी में ,
झोंकने जा रहा हो, बदकिस्मती से बचने के लिए,
रोज़ रोज़ की गालियाँ और बोनस में पड़ती लातें,
और कभी कभार, आने वाले ग्राहकों के थप्पड़,
उसने भुला दिया है इन सब के बीच, सहते हुए,
अपना वो बचपन, जो उसे खिलाता और खेलाता,
कभी अपने बापू के कन्धों पर सवारी करवाता,
और माँ के हाथों से लाड से दाल भात न्योत्वाता,
परन्तु बापू के गुजरने के बाद , परिवार का बोझ,
नन्ही नन्ही बहनों की फटी हुई मैली फ्रान्कें,
और माँ के हाथों में आ चुकी वो कुदाल और टोकरी,
कहाँ लेकर आ गयी है , इस छोटे से छोटू को ,
उसके बचपन से कोसो दूर, इस चाय की दुकान पर,
जहाँ पेट में रोटी से पहले, गालियाँ और लातें मिलती,
उसके बचपन के बचे हुए अंश को मिटाने के लिए,
जो भीतर तो छुपा है , पर हमेशा लालायित रहता,
उसके बाहर आने को किसी रोज़, मरते हुए भी ............
===========

भिखारी

आँखों में बस भूख थी उसके,
और तन में चिथड़ों के वसन,
दोनों हाथ फैलाएं सबके आगे,
सड़क के किनारे वो था यूँ खड़ा ,
मैं जो निकला उससे बचकर,
जब अपनी रहा था मैं टटोल,
एक सिक्के को मुठी में थामे,
मन में मेरे विचार यह आ पड़ा..
क्या दूं ? यह सिक्का इसके मैं,
या फिर इसे जब में ही रहने दूँ ,
फिर अचानक उसकी और देखा,
और वो मुझे देख कर यूँ हंस पड़ा,
मैं विचारों से आ गिरा अचानक,
इस चेतना की पथरीली धरती पर,
उसकी मुस्कान ने मुझसे जैसे पूछा,
बता, मैं भिखारी या तू ? कौन है बड़ा ?

सच नहीं बोलेगा

सच, जो नित मुझे डरा देता है,
कैसे बोल पाऊंगा में , इसे कभी,
यदि बोल दूंगा तो, निश्चित ही,
कुछ बंधू होंगे विमुख मुझसे,
और कुछ मित्र विचलित से,
कोई तो अधिकता की सीमा ,
लांगकर, उगल देगा एकाएक,
मेरे बारे में , अपना वो सच ,
जो उसने भी छुपाया होगा,
भीतर मन के अँधेरे कोने में,
बिलकुल मेरी तरह, जैसे में,
मन के उस अँधेरे कोने में रोज़,
झांकता तो हूँ, पर उसके कपाट,
बंद रखता भय से, कही कोई,
खोल ना दे मेरे भीतर की परते,
शायद तभी यह सच पड़ा रहता ,
वहां खामोश, चिंतन से युक्त हो,
कभी कभी निकल भी पड़ता ,
मेरे नेत्रों से अश्रु धारा के संग,
परन्तु फिर में यही कोशिश,
करता रहता, चेतन मन से,
कमबख्त छुपा ही रहे, यह,
सदैव, काहे को बाहर आकर,
मित्रों से शत्रुता, रिश्तों में कटुता,
सभी अपने कहे जाने वालों से,
बैर मोल ले, जीवन को दूभर,
बनाने में कोई कसर न छोड़े,
अतः मैं इसे छुपाये रखता,
सदैव झूठ के कई मन बोझ से,
मुझे नहीं कहलाना, वीर महान,
इसके जिव्या पर आते ही, तो,
मैं समाज से बहिष्कृत होकर,
वीरगति को ही ना प्राप्त हो जाऊं,
समझौता कर लिया है मैंने, अब,
अपने उस मरे हुए आत्मबोध से,
जो कुछ भी हो जाए, मैं सदैव,
ढांपे रखूँगा, अपनी हकीकत को,
और मन-वकील सच नहीं बोलेगा ,
कभी भी और कहीं भी,किसी को नहीं......

वो मुसाफिर

वो जब आया इस दुनिया में, बहुत शोर मचाता रहा,
शोर शोर करते करते, अपना आगमन बतलाता रहा,
माँ की गोद से, पिता के कंधे पर चढ़कर, हर रोज़,
अपने पाँव पर वो धीरे धीरे एकदिन चल निकला,
शुरू करने अपनी जीवन के सफ़र का , एक दूसरा ही दौर,
उसके पहले कदम धरा पर रखने से भी हुआ वैसा ही शोर,
उसके नन्हे नन्हे क़दमों की ताल भी, अब कुछ बदलने लगी,
तेजी आयी जुबान सी उसके क़दमों में, जिन्दगी मचलने लगी,
पहले अकेला रहा वो, अब हमकदम हमसफ़र मिलने लगे,
कुछ छूटे मोड़ पर ही , कुछ उसके साथ साथ चलने लगे,
नए विचारों से उसने नए जीवन को दिए उसने आयाम,
रुक न पाया वो कभी इस भागदौड़ में , करने को विश्राम,
अब उसके क़दमों की ताल के संग, कुछ कदम अपने से मिले,
जो अलग हो अपनी राह को निकले, कल तक जो साथ थे चले,
धीरे धीरे उसके क़दमों की भी गति , लगी कुछ अपने आप घटने,
वो अलग सा होने लगा उस राह से, लगा था कुछ वो भी थकने,
एकदिन ना जाने क्यों वो, एकाएक ही था उसका सफ़र थम गया,
चार कंधो पर चला वो अग्नि भस्म होने, वो मुसाफिर गुम गया...

विद्रोही हूँ

विद्रोही हूँ हनन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
बुझा दो अग्नि क्रांति की,
दिखाकर छवि शान्ति की,
झूठी आशा को नमन कर दो
आज मेरा दमन कर दो,
न बहे प्रगति की कोई गंगा,
रहने को हुआ है मन नंगा,
उग्र विचारों का हवन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
उदित न होने पाए कोई सूरज,
न तैरे शिक्षा के नवीन जलज,
गतिज नए युग का शमन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
मुखों पर जड़ दो कई कई ताले,
न कोई नए ग्रन्थ अब रच डाले,
तोड़ो लेखनी,पत्र सब भस्म कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
हो जनता, परिवर्तन सुख से विहीन,
मिलें रास्ते में, पुनः पुनः मन-मलिन ,
चेतन से जड़ हो सभी, ऐसा जतन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
नसों में बहता यह रक्त अब श्वेत हो जाये ,
बंज़र मरुभूमि , सब ये हरे खेत हो जाये,
उजड़ जाए जंगल, ऐसा कुछ प्रयत्न कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
मुझे अब दे दो विष मसीह वाला वो प्याला,
न देखे अब मन-वकील सुबह का नया उजाला,
मृत्यु भी मिले,पीडान्तक, ऐसा मरण कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,
विद्रोही हूँ हनन कर दो,
आज मेरा दमन कर दो,

मैं था या तुम थी स्वछंद ?

कहो मैं था या तुम थी स्वछंद ?
जो विचारों से उन्मुक्त हो बहती,
जिसे बंधन का कोई आभास नहीं,
यौन या मन का कोई भी, और कभी
कोई बंधन नहीं बाँध पाया तुम्हे, कभी,
अरे, हो तुम बहती हुई एक नदी सी,
जब मैं आया था जीवन में तुम्हारे,
बनकर उस बहती नदी के दो किनारे,
कुछ देर रही तक तुम उनमे सिमटी,
बहती मंद मंद सी, रही मुझसे लिपटी,
फिर भावों में आये अचानक तुम्हारे,
कुछ ऐसे तीव्रता के अनोखे से बहु तंत,
और तुम लांग गयी उन्ही किनारों को,
नदी सी नयी भूमि ग्रहण करने, बिना अंत,
मैं भी संग बह गया था,टूटते किनारों सा,
परन्तु रोक न पाया मैं, तुम्हारी वो गति
कैसा रोक पाता, वो तुम्हारी यौन उन्मुक्तता,
वो स्वतंत्र होने को उद्धत सी,व्याकुल मति,
तुमने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा मुझे कभी,
मैं कहाँ से टुटा कहाँ बहा, सुध न ली कभी
रहा नियमों से परे, खुले व्योम सा आचार,
मैं चाहकर भी न कर सका, कभी प्रतिकार,
और अब जब वापिस आयी तुम बहने फिर,
उसी पथ उसी राह से, जैसे होकर पुनः सिधिर,
अब पूछती हो मुझसे, करती क्यों हो द्वन्द,
कहो प्रिये मैं था या तुम थी स्वछंद ?

भूली तुम मेरा प्यार

अब कैसे लिखूंगा ? मैं वो रचना,
जिसमे तुम्हारे रूप का होता वर्णन,
अब कौन बनेगा ? मेरी वो प्रेरणा,
जब तुम ही चले गए छोड़ मुझे राह में,
चेतना में अब विराम सा लग गया,
और शून्य जैसे ह्रदय में हो जड़ गया,
कहाँ दौड़ा पाऊंगा मैं मन के वो अश्व,
जो उड़ाते थे तुम से मिलने को नभ में,
जो अपने पंखों को फैला करते थे हमेशा
तुम्हारे माधुर्य रूप लालिमा को अंगीकृत,
एक दीप्त्य्मान ज्योति सी तुम्हारी छवि,
जो मैं प्रतिदिन अपने भीतर गहरी करता,
और उसमे हर पल नए नए रंग था भरता,
ओज़स मेरे भीतर आता था तुमसे बहकर,
तुम्हारे सानिध्य से होती तृप्ति, रह रहकर,
युग बीत जाते कुछ ही पलों में, छूमंतर हो,
मैं और तुम, तुम और मैं, कुछ न अंतर हो,
और फिर बैठ जाता,ऐसे ही कुछ लिखने,
मन हो जाता प्रकाशित, तुम लगती दिखने,
कुछ बंधन बाँध स्वयं को, मैं सिहिर पड़ता,
किसी अहाट को सुन, तुमसे विछोह से डरता,
अब जब तुम चली गयी, ना जाने क्यों और कहाँ,
मैं खोजता फिरता हूँ प्रिये, अब तुम्हे यहाँ वहाँ,
साथ लेकर चली गयी तुम मन के भाव भी मेरे,
उजियारा भी अब रहा नहीं, छाये चहु ओर अंधरे,
लेखनी भी अब मेरी चलने से करती है इंकार,
मैं नहीं भुला तुम्हे प्रिये, किन्तु भूली तुम मेरा प्यार...
======

मेरी माँ

जितना मैं पढता था,शायद उतना ही वो भी पढ़ती,
मेरी किताबों को वो मुझसे ज्यादा सहज कर रखती,
मेरी कलम, मेरी पढने की मेज़ , उसपर रखी किताबे,
मुझसे ज्यादा उसे नाम याद रहते, संभालती थी किताबे,
मेरी नोट-बुक पर लिखे हर शब्द, वो सदा ध्यान से देखती,
चाहे उसकी समझ से परे रहे हो, लेकिन मेरी लेखनी देखती,
अगर पढ़ते पढ़ते मेरी आँख लग जाती, तो वो जागती रहती,
और जब मैं रात भर जागता ,तब भी वो ही तो जागती रहती,
और मेरी परीक्षा के दिन, मुझसे ज्यादा उसे भयभीत करते थे,
मेरे परीक्षा के नियत दिन रहरह कर, उसे ही भ्रमित करते थे,
वो रात रात भर, मुझे आकर चाय काफी और बिस्कुट की दावत,
वो करती रहती सब तैयारी, बिना थके बिना रुके, बिन अदावात,
अगर गलती से कभी ज्यादा देर तक मैं सोने की कोशिश करता,
वो आकर मुझे जगा देती प्यार से, और मैं फिर से पढना शुरू करता,
मेरे परीक्षा परिणाम को, वो मुझसे ज्यादा खोजती रहती अखबार में,
और मेरे कभी असफल होने को छुपा लेती, अपने प्यार दुलार में,
जितना जितना मैं आगे बढ़ता रहा, शायद उतना वो भी बढती रही,
मेरी सफलता मेरी कमियाबी, उसके ख्वाबों में भी रंग भरती रही,
पर उसे सिर्फ एक ही चाह रही, सिर्फ एक चाह, मेरे ऊँचे मुकाम की,
मेरी कमाई का लालच नहीं था उसके मन में, चिंता रही मेरे काम की,
वो खुदा से बढ़कर थी पर मैं ही समझता रहा उसे नाखुदा की तरह जैसे,
वो मेरी माँ थी, जो मुझे जमीं से आसमान तक ले गयी, ना जाने कैसे .....
=====प्रिये माँ के लिए..

Wednesday 15 June 2011

मेरा वर्तमान

वर्तमान की चिंता करता देखा मैंने भूतकाल,
और भविष्य के पीछे दौड़ता रहता है वर्तमान,
अवशेषों में खुशियाँ ढूंढें, भुलाकर आज की चाल, 
इन रेत के घरौंदों में ढह कर रह जाता है वर्तमान,
बीते सपने, बीते हुए पल,धीमी सी हुई वो ताल,
तीव्रता को थामे हाथों में, दौड़ता रहता है वर्तमान,
आने वाले कल की चिंता, बीते कल का करे मलाल,
समक्ष पड़े दायित्व-क्रम को भूलता रहता है वर्तमान,
मेरे बंधू या मेरे शत्रु , सोच सोच बस यही होता बेहाल,
आवसादों को मन के भीतर ढोता रहता है वर्तमान,
=======मन-वकील

माँ.

माँ...एक अक्षर और एक मात्रा,
जो प्रारंभ है मेरे जीवन की यात्रा,
जो ज्ञान बोध है मेरे जीवन का सार,
माँ सिर्फ माँ नहीं, है वो पूरा संसार....

===मन-वकील

Tuesday 14 June 2011

कैसी है यह जिन्दगी--3

एहे कड्वो सच से इह झूठी आस भली
जो दीयों सबहु रंग सो मन को बहलाय,
कैसो मोल ना करे, इहु मृग तृष्णा को,
मन-वकील,जो मृग दीयों चहुओर भटकाय
=======मन-वकील

कैसी है यह जिन्दगी--2

अरे जिन्दगी दो दिशाओं में चलती है अब मेरी,
कभी रोशनी तो कही रात ढलती है अब मेरी,
कौन जाएगा मन-वकील किस ओर?क्या खबर,
ये नाव दो धाराओं में फंस के चलती है अब मेरी,
ना ढूंढ़ अब मुझे किसी भी एक मुकाम पे, ऐ सनम,
अरे यह शाम भी दो जगहों पे कटती है अब मेरी,,,,
======मन-वकील 


सदा पैबंद बन कर ही जिया वो, मान बंदगी,
बस सिलता रहा दूसरों की फटी हुई जिन्दगी,
यूँ तो वो था ढांपता, दूसरों के दीखते खुले गुनाह,
पर ना जाने क्यों वो लोग उस पे उठाते उँगलियाँ,
=======मन-वकील  


अब तो उसके टूटने की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती,
चोट खाता वो हर-बार, पर कमबख्त दिखाई नहीं देती,
कभी तो झाँक-कर देखों ,उसकी उन खामोश आँखों में,
ऐसी कौन सी गम की परछाई है जो दिखाई नहीं देती.....
=======मन-वकील
 

कैसी है यह जिन्दगी--

कभी खट्टी है, तो कभी मीठी होती है यह जिन्दगी,
कभी बच्चे की किलकारी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी पुरानी बुढ़िया सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी पतझड़ सी, कभी बसंत सी होती है यह जिन्दगी,
कभी जागी तो कभी कुम्भकर्ण सी सोती है यह जिन्दगी,
कभी हकीकत, तो कभी ख्वाबों को पिरोती है यह जिन्दगी,
कभी खेलती रहती, कभी थकी सी होती है यह जिन्दगी,
और कभी अनगिनत यादों के बोझ को भी ढोती है यह जिन्दगी
कभी मेरे करीब है, कभी मुझसे दूर होती है यह जिन्दगी,
कभी तारीखों के पन्नों में दबी इतिहास होती है यह जिन्दगी,
कभी मासूम सी, और कभी चालबाज़ सी होती है यह जिन्दगी,
कभी मन-वकील के मन सी, अशांत भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तारों की छाँव, तो कभी सूरज की तपिश होती है यह जिन्दगी,
और कभी भीड़ में बैठकर भी, अकेली सी रोती है यह जिन्दगी,
कभी हाथों की लकीरों में, ना जाने कहाँ भटकी होती है यह जिन्दगी,
कभी तकरीरों को सुनती, कभी लतीफों की तरह होती है यह जिन्दगी,
कभी विधवा का क्रंदन,कभी किसी देव का वंदन होती है यह जिन्दगी,
कभी आमों की बयार, कभी साँपों से घिरा चन्दन होती है यह जिन्दगी,
कभी हास-परिहास, और कभी युगों से उदास होती है यह जिन्दगी,
कभी रूठी प्रीतम की तरह, कभी प्रेयसी से पास होती है यह जिन्दगी,
अज़ब रूप धरे रहती , एक अनबूझा सवाल सी होती है यह जिन्दगी,
कभी उलझन बन डूबी रहती, कभी बेमिसाल सी होती है यह जिन्दगी,
मन-वकील अब तो निकल पड़ किसी राह पर,हाथों में लेकर यह जिन्दगी,
बीत जायेगी बिन कहे, और कभी पल-पल सी रुक ना जाए यह जिन्दगी.......

वक्त का पहिया

वक्त का पहिया चला , साथ मैं भी चल पड़ा..
कुछ पल खुशियों के, कुछ पल गम के भरे,
मुठी में बंद थी जिन्दगी, फिर भी मैं चल पड़ा,
कुछ रूप थे सच्चे, और कुछ बहरूप मैंने धरे,
सोच थी कहीं और कही मन, और मैं चल पड़ा,
लोग मिलते रहे और कुछ राह ही में ही उतरे,
कभी चुभन, कभी सहज, सहन कर मैं चल पड़ा,
भाव आते रहे मन में, झूठे और कभी इतने खरे,
कोई रोके आगे बढ़कर, कोई पीछे, और मैं चल पड़ा ,
विकटता से भरा रहा सदा मैं, कई कई बार मन डरे,
वेदना-चेतना के मेल से युक्त, फिर भी मै चल पड़ा,
वक्त रूककर मुझसे पूछे, कब अंतिम पथ पर खड़े?