Thursday 28 June 2012

नाकारा या बेरोजगार या नाकाबिल

           
वो पढ़ा लिखा है खूब पढ़ा लिखा,
ऐसा वो खुद नहीं कहता किसी से,
दुनिया कहती,उसके दोस्त कहते,
पर वो चल ना सका इस दुनिया में,
या फिर कहो, वो कामियाब नहीं,
सीधा है, चालाकी नहीं जानता वो,
धूर्तता की बारीकियों से अनजान,
आज के दौर में झूठ बोल कमाना,
शायद वो कभी सीख ही ना पाया,
सरल होना उसकी फितरत है या
कोई जन्मजात मूर्खता की  निशानी,
ज्ञान इल्म या जानकारी ये शब्द,
उसके दिमाग में गढ़े हुए हो जैसे,
कील ज्यो लकड़ी के शहतीर में,
वो बोल लिख भी अच्छा लेता है ,
पर इस दुनिया की वो जुबान तो,
जिसमे फरेब हो, वो नहीं जानता,
दुनिया में कामियाबी की वो रस्में,
जिनमे दुसरे के कंधे पर चढ़कर,
अपनी पतंग निकाल लेना जैसे,
वो नाकारा बन बिलकुल नहीं जानता,
उसका बाप आज भी अपने टूटे हुए,
खटारा स्कूटर पर बैठ कमाने जाता,
और वो घर बैठ,सिर्फ  इंतज़ार करता,
जैसे अपनी काबिलियत को आंकने की,
और लोग कहते, बाप की रोटियां तोड़ता,
या फिर बीवी के टुकड़ों पर पलने वाला,
वो कहीं जा तेल भी नहीं बेच सकता,
शायद फ़ारसी नहीं पढ़ी हुई उसने कभी,
कमियाँ है उसमे शायद बहुत ज्यादा,
जो दुनिया के अंदाज़ और आगाज़ में,
वो दौड़ नहीं पाया शायद लंगड़ा रहा वो,
किसी को धोखा देना,छल कपट संजोना,
झूठ के सहारे, ऊँचे ऊँचें महल सजाना,
उसने इस इल्म को कभी नहीं पहचाना,
चंद चांदी के सिक्कों को कमाना जैसे,
धरती से आसमान के सफ़र करने सा,
लोग काम तो देंगे, पर उसके दाम नहीं,
फरेब से खसोट लेता तो शायद ठीक था,
और फिर बन गया वो इस दुनिया में,
एक और पढालिखा बेरोजगार इंसान,
या यूंह कहिये इस दुनिया की जुबान में,
नकारा, जी हाँ, नकारा, कमबख्त नकारा,
 ===मन वकील

Wednesday 27 June 2012

तपिश है, वो ही अब मेरे जीवन का सार,
मूल कही उलझा बैठा, ढूंढ़ रहा मैं आधार,
परिवर्तन की आस क्या,मुझे अब नहीं चाह,
पथिक बन जो भटका, स्वयं साधी अब राह,
निरर्थक या अर्थहीन, भेद जीवन सा महीन,
समय पंछी बन उड़ता, भूत बने जो है नवीन,
करतब करता है मन, बन नट नित हर पल,
स्वप्न कहाँ हो मनोहर, जब नैन भरे हो जल,
मीत चाहू सहज सरल, मिले शत्रु अब हजार, 
शंका चितवन में आन बसी,चिंता ना निराधार
 
तपिश है, वो ही अब मेरे जीवन का सार,
मूल कही उलझा बैठा, ढूंढ़ रहा मैं आधार,
==मन वकील


Monday 25 June 2012

रास्ते ही रास्ते, हर ओर है बस रास्ते,
मन की घाटियों में गोल घूमते रास्ते,
कभी सरल है, तो कभी कठिन रास्ते,
दुविधा से भरे,या उससे परे वो रास्ते,
कहीं अन्तःहीन है, कहीं सिमटे रास्ते,
वासना से भरे,या बोध से सुलझे रास्ते,
कुंठा के मील पत्थर से गुथे हुए रास्ते,
कभी मुस्कराहटों से बीत जाते रास्ते,
अंधियारों से घिरे या चमकते से रास्ते,
कभी मुझमे समाये, या निकलते रास्ते,
जब मैं हुआ सरल,मन बन गया रास्ते,
जो हुआ कठिन, तो ढूंढ़ता रहा मैं रास्ते,
समय की पहाड़ियों से नीचे आते रास्ते,
यादों की वादियों में कहीं खो जाते रास्ते,
अनजान सायों के साथ गुज़र जाते रास्ते,
कभी अपनों के बीच ठोकर दे जाते रास्ते,
भूत से वर्तमान की खाइयों में खोते रास्तें,
कभी भविष्य की झूठी आस में रोते रास्ते,
कभी हिम्मत के तारकोल से बने वो रास्ते,
कहीं कमज़ोर मनसा तंतु से बने वो रास्ते ,
कहीं ईश्वर की मूर्त को संग पूजते है रास्तें,
कभी नास्तिक हो अस्तित्व को पूछते रास्ते,
कभी अन्तर्वासना से पीड़ित हो उठते रास्तें,
कभी आनंदित हो व्यसनों से जी उठते रास्ते,
मन-वकील क्या कहे, क्या जीवन को रास्ते ?
सब करों अपनी मन की, मैं चला अब अपने रास्ते,,,,,,,
=मन वकील


Thursday 14 June 2012

आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
तभी संसद के कैंटीन वाला कहता है,
आजकल संसद में बेसिज़न भीड़ बढ़ी है,
जो बनाए रहते थे कभी अपने अपने दल,
अपने मुद्दे की आड़ में करते थे हलचल, 
कल तक जो बकते इक दूजे को गालियाँ,
अब गलबहियां डाल पीटते वो तालियाँ,
उन दलबदलुओं में जुड़ने की चाह बढ़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
सब के सब चाहते बस इक रबड़ की मोहर,
जो बस अंगूठा टेकें, बने ना उनका शौहर,
जो उनके भेजे विधेयकों पर उठाए ना सवाल,
कौन कहाँ गवर्नर बने, रखें ना इसका ख्याल,
बस ऐसे एक जमुरें को जमुरियत सौपने की पड़ी है,
आज चोरों डकैतों में अपना सिरमौर,
चुनने के लिए जबरदस्त होड़ पड़ी है,
==मन वकील

Monday 11 June 2012

हमारा सचिन तेंदुलकर

वो है क्रिकेट का भी असली जेंटल मेन,
सौम्य सरल पारंगत,जो कहते सब फैन,
नित नए रिकार्ड रचे लगाये नित शतक,
हर गेंद को सहज ही खेले,पारी होने तक,
यदि आउट होय, तो भी रहता वो शांत,
प्रशंसा करते सब, कपिल हो या श्रीकांत,
ब्रेडमैन से करते,देसी बिदेसी उसका मेल,
अलग शान से, अलग ढंग से खेले वो खेल,
तभी राजनीतिज्ञों ने बुला उसका पूछा हाल,
राज्यसभा में नामित कर,फेंका मायाजाल,
करने सुशोभित उसकी विधा,भेजा शाहीपत
आओ प्यारे संग बैठो हमारे,लेकर एक शपथ   
झटपट ही कर डाला,संसद में उसका टीका,
अखबारों में जोरदार छपा,पर लगता था फीका,
फिर किया सरकार ने, उस प्यारे पर अहसान,
युवराज़ के पास बंगला अलोटकर,बढाई शान,
पर वो प्यारा था सचमुच सच्चा सहज सरल,
झट मना किया,रहने को वो बंगला अविरल,
राज्यसभा में आया अब,इक असल जेंटलमेन,
जो सत्ता के भूखों से अलग चल, करें उन्हें बैचैन ...........
=========मन वकील

Sunday 10 June 2012

सक्षम असक्षम,

मैं हूँ जो सक्षम,ओढ़े रहता दर्प की मैली इक चादर,
मुझ में बसे सर्व दोष,भरते मुझमे पल पल निरादर,
वो दृष्टिहीन राहुल, जन्मजात बंधित दृष्टि विहीन,
वो ज्ञात रखता मार्ग में,खोज लेता सब तंत महीन,
मैं जो कहता निज नेत्रवान, गिरता रहता हर पग,  
दिशाविहीन बन भटकता,जान सकूँ ना मैं इह जग,
वो बधिर सोनू, जो बंधित हो श्रवन विहीन चराचर,
समझ गुणांक जग अति रख,मूलबुद्धि बनाए अनुचर,
मैं श्रोता सा कुवसन धर,केवल संजोता बानी अनुचित,
केवल तंतु-जाल में फंस,सठ सुन ना पाऊं हित उचित,  
वो मूक वीणा रहे हंसती,इंगित कर जग में बोल भरती,
कुबाणि का भेद ना जाने,भला भला ही चिन्हित करती,
मैं बन अमूक केवल करता कुभाष,बिन सोचे परिणाम,
तीखी व्यंगित बानी से,प्रारंभ करता इहा नित नए संग्राम
वो शैलेश पंगु बन,खोज लेता हर डगर हर राह हो सक्षम,
मैं पांवों से ठोकर खाता, गर्त में नित गिर बना असक्षम,
प्रभु दिए जब शारीरिक दोष, सहित बुद्धि विवेक संतोष,
हम सक्षम को दिए सुतन,सह क्रोध लोभ सहु सब दोष /////////////////////////

"नि" को महिमा

आशा और निराशा में एक ही है घट अंतर, "नि" को अंतर,
जुड़ जाए "नि" अति बनकर, तो बन जाता नियति निरंतर,
जो मिले मोह में अति बनकर,तो मनु को कर देयो निर्मोही,
अगर मिले मूल में कभी "नि",जो निर्मूल भये सकल विद्रोही,
"नि" को समावेश होत लज्जा में अति,जासु नार होवे निर्लज्ज,
 बसे "नि" प्रेमआतुर महु अति बन, करत प्रेयसी निष्ठुर रज-रज,
"नि" छुपे मम "नियत" महु  ऐसे,ज्यो सर्प पादपबिटप घनघोरा,
"नि" मिले स्वार्थ बिन कबहु, तो अरि बनहु "निज" ही मनमोरा,
"नि" को महिमा मन सकल पहचानी,"नि" करे परवर्तित सुभाष
"नि" करे निमित निश्छल जो छल अज्ञानी,जो मिटे सठ कुहास
====मन वकील

Wednesday 6 June 2012

चंद सिक्को में बिकता हे यहाँ इंसान का ज़मीर,
कौन कहता है, मेरे मुल्क में महंगाई बहुत है,
फाइलों से छापते है बाबू , यहाँ नोट पर नोट,
कम्बल,दारु की बोतलों में बिकते यहाँ वोट,
थानों में बहे जाती है अनाचार की वो गंगा,
पैसे के लिए पीटे गरीब, दरोगा करके उसे नंगा,
अस्मत लूटी जाती है हस्पतालों में भी अक्सर,
रिश्वतखोर बाबू को रिश्वत लेकर छोड़े सीबीआई अफसर,
संसद के गलियारों में महफ़िलें,मिटे मुल्क की तामीर,
अब रोये आम आदमी, मन में मायूसी तन्हाई बहुत है
 
चंद सिक्को में बिकता हे यहाँ इंसान का ज़मीर,
कौन कहता है, मेरे मुल्क में महंगाई बहुत है,
हरा या पीला या सिंदूरी सा,
संग गुलाबी सी,रंगत लेकर,
सुगंध बिखेरता अनोखी सी,
नरम कभी या सख्त सेकर,
कभी रेशे सा भर देता मुख,
या मधुमाखन बन देता सुख,
कोई चूसे लेकर इसे चटकारे,
कोई फांके खाए संग भरे हुंकारे,
जन मानस की बन मुस्कान,
ग्रीष्म ऋतु की वो है पहचान,
ग़ालिब के ह्रदय बसे बन शेर,
खूब खाए इसे वो अनुपम खेर,
जूस की दूकान पर बढाए भीड़,
बच्चे बूढ़े या जवान,होय अधीर,
कभी दशेहरी या मलीहाबादी,
कभी चौसा बन,लुभाए आबादी,
कही अलफांसो, या केसरिया,
हर किसी का बने लोभ-पीया,
किस्म किस्म के धरे वो रूप,
जन-जन खाए मन अनुरूप,
भौर आये जब इसकी आहट,
मुग्धाय खग,भौराय जमावट,
जब जब आये बिकने को मंडी,
ढेर ढेर दिखे यहाँ वहां चौखंडी,
भरे खरीद मनचाहा,कोई थैले,
कोई भरे पेटी,संग कागज़ मैले,
कोई कच्चा लेवे, और कटवाए,
मुरब्बा बनाए,कोई अचार बनाए,
कोई कच्चा समूचा इसे पकावे,
जो आमरस-पन्ना स्वाद जमावे,
रोज़ बढ़ते है अब इसके दाम,
अब निर्धन कैसे खाए "आम"


हर वक्त पुरानी बातों का मैं रोना रहता हूँ,
जो बात नहीं थी कहने की मैं क्यों कहता हूँ,
अनबुझे सवालों के उत्तर युहीं ढूंढ़ता रहता मैं,
मिले जवाबों के जोड़ भुला,उलझा ही रहता मैं,
मकड़ी की तरह,नीचे गिर ऊपर उठने की चाह,
अपनी राहों में जालों से बंधा,वो पीड़ा सहता हूँ,
हर वक्त पुरानी बातों का मैं रोना रहता हूँ,
जो बात नहीं थी कहने की मैं क्यों कहता हूँ,
पथिक बनूँ या राह का पत्थर, उलझन हूँ मैं,
धूल नहीं जो नभ उडू,मन जनित बंधन हूँ मैं,
कोई कहे मुझे कुछ, मैं क्यों करता प्रतिकार,
व्यथित हो स्वयम प्रतिशोध में जलता रहता हूँ 
हर वक्त पुरानी बातों का मैं रोना रहता हूँ,
जो बात नहीं थी कहने की मैं क्यों कहता हूँ,
नयी इच्छाओं का दमन, मन क्यों अब करें,
जो पंख दिये मुझे लालसा ने, उड़ान क्यों ना भरे,
चेतना अब करूँ जागृत, अंतर्मन में बसा वासना,
आनंदित मन हो सुध भुला, चेष्टा करता रहता हूँ
हर वक्त पुरानी बातों का मैं रोना रहता हूँ,
जो बात नहीं थी कहने की मैं क्यों कहता हूँ, 

Saturday 2 June 2012

मैं खड़ा हूँ ऐसे वक्त के चौराहें पर,
जहाँ कल की यादें बार बार आकर,
मेरे आज को यूँ है अक्सर डराती,
क्यों करूँ मैं आते कल की चिंता,
वो जो ना जाने कैसा हो मेरे खुदा?
फिर क्यूँकर उसकी फ़िक्र सताती,
मेरे क़दमों ने कल जहाँ ख़ाक छानी,
वो रास्ते ना अब, अजनबी है मुझसे,
मैं खड़ा रहा वही,वो डगर कहीं है जाती,
मुझे क्या खबर होगी, उन मंजिलों की,
जो कभी ना मैंने है देखी,आवारा जो मैं,
मुझे धूल फांकनी थी,तो मंजिले क्यों भाती,
मैं खड़ा हूँ ऐसे वक्त के चौराहें पर,
जहाँ कल की यादें बार बार आकर,
मेरे आज को यूँ है अक्सर डराती,