Sunday 25 December 2011

दीवारों पर लिखी इबारत की तरह,
जिन्दगी अब रोज़ पढ़ी जाती है मेरी,
कई कई बार पोता गया है इस पर,
चूना किसी और की यादों से गीला,
ना जाने क्यों? उभर आती है बार बार,
लिखी हुए इबारत ये, झांकती सी हुई,
चंद छीटें जो कभी कभार आ गिरते,
बेरुखी से चबाये किसी पान के इस पर,
रंगत निखर आती इसमें दुखों की युहीं,
अरमानों की बुझी काली स्याही से लिखी,
आज भी बता देती ये मेरे भाग में बदा,
पानी से मिटने की चाह भी ना जाने अब,
चाहकर भी कही ना जाने कहाँ गम है,
बस दिखती है तो ये मेरी जिन्दगी ऐसे,
दीवारों पर लिखी इबारत की तरह युहीं ....
==मन वकील

Friday 9 December 2011

जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
भावों की नैया रहे डगमगा,
मन के भीतर नहीं अहसास
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
संदूक में छुपा कर रखा है,
जो खेलता था कभी रास,
अवशेष है जैसे कोई राख,
ख़ामोशी लेती है मेरी सांस,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
कोनों में पड़े थे जो आंसू,
निकल करे लेते है अड़ास,
रोकने पर भी नहीं रुकते ये,
दिखलाकर पीड़ा की खटास,
जब लेखनी हो गयी उदास,
अब शब्द कैसे आये पास ?
===मन वकील