Monday 31 October 2011

कभी-कभी ऐसा भी है होता,
बुद्धि जागे और मन है सोता,
जहाँ व्यवहार हो इस मन का,
मस्तिष्क वहां धोवन है धोता,
कभी कभी ऐसा भी है होता,
रिश्ते संभालें या इन्हें हम तोड़े,
कब मित्रों का साथ हम छोड़े,
भावों पर क्षुधा का जोर है होता,
कभी कभी ऐसा भी है होता,

Saturday 22 October 2011

रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
आँखों में नशा, होंठो पे प्यार का सबब बनता है..
वो जो आ जाते है तो पल में सब ठहर जाए,
उनके आते ही खुशबू सी हर सु बिखर जाए,
हुस्न के उनके दीदार तो वो कमबख्त चाँद भी चाहे,
अठखेलियाँ करती है हवा, ये मौसम भी मुस्काये,
तन में मेरे हरारत सी का कुछ सबब बनता है
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
रौशनी फैले उनके नूर-इ-हुस्न की फिजाओं में,
रात आकर दुआएं मांगती रहने उनकी पनाहों में,
चाहू उनके मुखड़े पर, बस मेरे नाम की हो पुकार,
वो मुझे छू लेने दे, कर लूं मैं हुस्न के पुरे दीदार,
आज बस बातों से परे,खामोश आहट का सबब बनता है,
रात आने पे , उनके आने का सबब बनता है,
==मन-वकील
मैं था रंगरेज़ के हाथों में इक कपडे जैसे,
थामे था जो मुझको,वो हुआ रंगने को ऐसे,
मैं जो पल में था हल्का, सफ़ेद बादल जैसे ,
अब युहीं गहरा हो गया, ना जाने क्यूँ  ऐसे,
मासूमियत मेरी वो,अब सिमट गई हो जैसे,
अब खुद की पहचान ढूंढ़गा,मैं खुद में कैसे,
भरी भीड़ में था डर,मैल छूने पे जो मुझे जैसे,
अब घटा से मुझमे छाई, कई दागों की ऐसे,
विवादों से परे रहकर, जो मैं जीया था ऐसे,
अब घिर गया हूँ उनमे,निकलूंगा बाहर कैसे ....
==मन-वकील
उसके जिस्म की आंच आने लगती है
जब भी वो बैठती है आकर संग मेरे,
खुशबू उसकी मुझे बहकाने लगती है
जब सिमट जाती है ऐसे पहलु में मेरे,
उसके बालों से उठती वो भीनी सी महक,
मैं भूल जाता जब लग जाती गले मेरे,
उसके होंठो पे आज भी है मेरे चूमने के निशां,
आज भी बसती है छुप के इस दिल में मेरे.....
==मन-वकील

Friday 21 October 2011

गम से निजात कहाँ, अब चैन मिलता हमें अब कहाँ,
गंगा भी है अब सूखी,जो बहते खून के दरिया यहाँ वहां 
अरे जन्नत और जहन्नुम के फर्क को,ऐसे अब भूले हम,
तू क्या खुदा है, ना मिलने पे तेरे,फिर क्यूँकर करते गम,
नाराज़ है वो खुदा भी,जो मेरी बंदगी से भी नहीं है मानता,
मनाये किसे मन-वकील, रूठे खुदा को या तुझे, नहीं जानता
अरे दोस्तों को भुला कर, तेरी रौशनी को क्यूकर हम चाहे
गैरों की खाती हो तुम कसमें, फिर क्यूँकर ना तुझे भुलाए,
हम भूलने की चीज नहीं, खूब याद रख तू ऐ बेवफा सनम,
तुझे दिल से है मिटाया अब हमने, नहीं याद करते तुझे हम...
==मन-वकील

Wednesday 19 October 2011

राम जैसे श्रेष्ट नहीं यदि कभी बन पाए,
लखन जैसे आज्ञाकारी बन दिखलायों,
अंहकार के रावण का यदि वध न होवे,
तो भीतर दुष्कर्मों का मेघनाद ही गिरायों,
क्या भस्म करते रहते हो?ऐसे हर वर्ष,
जब स्वयं की बैतरनी यदि पार ना पाओ,
यहाँ वहां बींधते रहते जब क्रोध के बाण,
तन चाहो क्यों उजला, जब मन हो श्मशान,
प्राण बसाकर ऐसे मन को जीवान्त कर,
मुग्ध स्वयं से हो, नव दिशा आत्म रचाओ,
===मन-वकील

Sunday 16 October 2011

 प्रिये मित्र के लिए:-

कहने की बात थी वो उसे कहदी और सुना दी कब की,

जो दिल पे बन आई थी वो छुपाकर भी दिखा दी कब की, 
दुनिया की हवस में अपनी हस्ती ही मिटा दी कब की,
क्या कितना खोया अब दीन-ओ इबादत भुला दी कब की,
दिल लगाने की ऐसी सज़ा मिली, रूहे आतिश बुझा दी कब की,
अब नहीं फ़िक्र नहीं फनाह होने की, हर हसरत मिटा दी कब की,
काबे या इबादतगाह क्यूँकर जाए अब हम कभी, ऐ मेरे दोस्त,
जब इस दिल में उनके प्यार की वो मजार सजा दी कब की ,
एतिबार नहीं खोया खुद पे, ना खायी कभी भी झूठे कसमें हमने,
जब जहर-इ नफरत पीकर हर सुं, दीवानगी ऐसे लुटा दी कब की 
दफ़न कर दिए सब हुजूमे-गम भीतर, छुपाकर सभी हसरतें अपनी,
बस यार की राह तकते तकते, जिन्दगी अपनी लुटा दी कब की ....
==मन-वकील

Saturday 15 October 2011

महतो जी की वो दालान आज भी है भरी हुई,
खाटों व् हुक्कों के बीच ज़रा कुछ फंसी सी हुई,
शामिल है चंद कुर्सियां भी सरकंडे से बुनी हुई,
कई महफ़िलों की दास्ताँ समेटे कुछ सुनी हुई
पर लोगों के हजूम आते यहाँ कुछ भी कहते
रात बीतने लगती और धीरे धीरे जाते रहते,
रंगीनियाँ बदल जाती रात के अँधेरे से डरी हुई
महतो जी की वो दालान फिर भी रहती भरी हुई,
मोंटू चाँद रमण नितिन या खान या हो कोमल
सभी शायद आते कभी ना कभी यहाँ पल दो पल,
चौपाल सी लगती पर है अलग से कुछ पसरी हुई
महतो जी की वो दालान सदा रहती आई है भरी हुई,
==मन-वकील

Wednesday 12 October 2011


आज जब फिर से गुजरा,उस सड़क पर,
कई सालों बाद, जवानी के बीतते दौर में,
कुछ यादें झट से, समूचे मन में कौंध गयी,
वो सड़क नहीं बदली है आज भी वैसी ही,
जैसी पहले सी थी,मेरे कालेज के दिनों में,
वही गड्डे, वही बिखरे कंकर, उडती धूल,
कुछ नहीं बदला आज भी वैसा ही रहा है,
बदला है तो सिर्फ आस पास का माहौल,
वो अशोक के पेड़, जो ढांपे रहते थे इसे,
वो अब नहीं रहे, हाँ अब कंक्रीट के किनारे,
जो खा गए है उसके इर्दगिर्द की हरियाली,
संग में, कई नौजवानों के कुछ अरमान,  
मुझे याद है आज भी, वो बीते हुए कल,
जब मैं अपनी प्रेयसी की बिठाकर पीछे,
अपने पापा के उस स्कूटर पर, उन दिनों,
जानबूझकर निकलता था उसी सड़क पर,
और अचानक गड्डे में उछलता मेरा स्कूटर,
और वो कसकर थाम लेती मुझे बाहों से ,
और उसके उभारों की नरमी बस कर देती,
मेरी भीतर के रक्त को इतना गर्म और मस्त,
वो दिखने लगता मेरे कानों के लवों पर रेंगता,
और मन होता बस चुम्बन अंकित करने को,
वो मुझे डांटती,पर शायद कुछ और सोचती ,
वो उसके बाद और करीब हो जाती थी मेरे,
सड़क से गुजर जाने के बाद भी लिपटे हुए,
वो दिन शायद जीवन के सबसे सुखद दिन,
आज मैं फिर से गुजरा फिर उस सड़क पर,
वही गड्डे, लेकिन प्रेयसी अब साथ बैठी है,
साथ बगल की सीट पर, अब मेरे पीछे नहीं,
उसके हाथ मुझे घेरे नहीं है , बल्कि अब तो,
वो थामे है उसके उस मोबाइल को कसकर,
जो उसे मुझसे प्यारा लगता है और शायद हाँ,
पल में वो पल याद आते है मुझको सड़क पर,
क्या वो पापा का स्कूटर, ज्यादा सुखदायी था,
या फिर, मेरी यह बड़ी आरामदायक सी गाडी,
जो मुझे कर रही है वंचित उस क्षणिक सुख से,
इस सोच में डूबा मैं, अब भूलने लगा एकाएक,
सडक के गड्डे पर सिमटे अपने पुराने पलों को ...
==मन -वकील
इस जीवन का एक सार बना दो,
आज मुझे बलि पथ पर चला दो,
सत्य नहीं असत्य भरा इस घट में,
कोई कंकर मार इसे तोड़ गिरा दो,
रागों को बैरागी लेकर अब निकले,
बेसुरों से सब संगीत युहीं सजा दो,
कौवों को पहनाओं तमगे पुष्पहार,
कोयल को अब पत्थर मार भगा दो,
गिद्दों के संग खायो बैठ ये निरामिष,
ज्ञान हंसों को अब यहाँ से उड़ा दो,
रहने दो अब ये बालाएँ केवल नग्न,
इनके वस्त्र अब हरण कर बिखरा दो,
रोने दो अब भूखे मानव को बस ऐसे,
अन्नित खेतों पर अब कंक्रीट बिछा दो,
कहाँ क्रांति ला पाओगे अब तुम मित्रों,
बस मेरे ही विद्रोही स्वर को मिटा दो ....
===मन-वकील    

Monday 10 October 2011


आँखों की देखी, कुछ मैं ऐसी देखी,
चाहे रही वो कुछ अटपटी अनदेखी,
पर सिखा गई मुझे वो सब मन देखी,
चित्रपट सी घटित हुई जो हम देखी,
दुर्भाग्य थी या आकस्मिक जो देखी,
अपनों संग विश्वास, भली भाँती देखी,
कड़वे नीम सी बीती जो और ने देखी,
इच्छा अनिच्छा के दौर में घूमे देखी,
मन की परतों पर चढ़ी धूल भी देखी,
कभी आँखों से बरसती वर्षा सी देखी,
कभी मन में रिसती नदी बनती देखी,
पीड़ा के उदगम में कही सिमटती देखी,
कभी नन्ही बेटी सी मुस्कराती भी देखी,
बहुत देखी अज़ब गज़ब सी होती यूँ देखी,
हाथों से रेत सी फिसलती जिन्दगी देखी ....
====मन-वकील

Friday 7 October 2011

कुछ तस्वीरें आज भी है मेरे जेहन में,
जो कौंधती रहती है एक चमक के जैसे,
अब रुकता नहीं सिलसिला उन यादों का,
रह रह कर घटा सी गरजती हो कही जैसे,
यह समय की आंधी शायद सब कुछ उड़ादे,
पर साफ़ करेगी मन की धूल-परतों को, कैसे,
औंधे मुहँ रोने से भी नहीं छुपती यह आवाज,
चीखता जो है अब मेरा दिल,बार बार ऐसे,
अरे बदलते मौसम के संग अब तपिश भी गई,
जो कभी समेटे थी कभी उनको मेरे भीतर जैसे,
अब धुआं उठता रहता है बस एक लकीर बनके,
जहाँ जलते थे हमारे प्यार के अलाव से कैसे,
उठ मन-वकील ठिकाना ना बना, अब अपना
हर जगह,जब जिन्दगी हो इक सफ़र के जैसे....
==मन-वकील
कुछ तस्वीरें आज भी है मेरे जेहन में,
जो कौंधती रहती है एक चमक के जैसे,
अब रुकता नहीं सिलसिला उन यादों का,
रह रह कर घटा सी गरजती हो कही जैसे,
यह समय की आंधी शायद सब कुछ उड़ादे,
पर साफ़ करेगी मन की धूल-परतों को, कैसे,
औंधे मुहँ रोने से भी नहीं छुपती यह आवाज,
चीखता जो है अब मेरा दिल,बार बार जो ऐसे,
अरे बदलते मौसम के संग अब तपिश भी गई,
जो कभी समेटे थी कभी उनको मेरे भीतर जैसे,
अब धुआं उठता रहता है बस एक लकीर बनके,
जहाँ जलते थे हमारे प्यार का अलाव से कैसे,
उठ मन-वकील ठिकाना ना बना, अब अपना
हर जगह,जब जिन्दगी हो इक सफ़र के जैसे....
==मन-वकील

Saturday 1 October 2011

इस वक्त की है अज़ब दास्ताँ,
ढूंढे नहीं मिलता कही आशियाँ,
रातों को चिरागों से रौशनी नहीं,
आंधियों का अब जोर चलता यहाँ,
फितरत ही बदलती,सभी और यूँ ,
गुनाहों का दौर अब चलता यहाँ,
दोस्ती नहीं,मिले तिजारती अक्स,
कीमत से मिलता प्यार हर जगह.....
==मन-वकील