Monday 21 May 2012

सत्यमेव जयते ( भाग-दो)


हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में
सत्यमेव जयते,एक गुमनाम नारा सा बने हुए,
थानेदार की कुर्सी के पीठ वाली दिवार पर टंगे,
गांधी जी की उस पुरानी तस्वीर के नीचे,टंगे हुए,
जिस पर उस तस्वीर की धूल की परते बिछी हुई,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में,
जहाँ अब सत्य की भाषा, केवल गाँधी जी ही है,
चाहे नीली तस्वीरों पर छपे हुए या हरी या लाल,
गांधी जी की मुस्कराती इन तस्वीरों में छुपे हुए,
मैंने उस सत्य को क्रंदन करते, देखा तडपते हुए,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में
जहाँ बलात्कार की त्रासदी से अधिक झेलती हुई,
वो बेबस नारी,सत्य के नंगेपन से बचने को रोती,
और सामने वो खाकी वर्दी वाले,खींसे निपोरते हुए,
कागज़ में बयान नहीं,कोई अश्लील कथा संजोतें हुए,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में,
जहाँ रात ढलने पर,किसी मयखाने की महक होती,
जो अकसर हर वर्दीधारी के कमरे से निकल आती,
जो कभी बंद थी किन्ही नशीली बोतलों में छुपी हुई,
अब उन बोतलों के खाली होने पर,खाकी पर गिरी हुई,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में ,
जहाँ अक्सर फैसलों की आड़ में, सत्य का गला काटते,
और सबूतों की मिट्टी उड़ाते,नए झूठें गवाहों को सजाते,
पैसेवालों को लाक अप से बाहर बैठ, मुर्गों की दवात उड़ाते,
और गरीब की औरत को अपने आंचल से, अपनी देह छुपाते,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में
किसी केस में पकड़ी गयी गाड़ी से, चोरी से पेट्रोल चुराते हुए,
बरामद नयी कार के चंद हिस्सों को निकाल कर ले जाते हुए,
या फिर बरामद मोटर साइकिल पर सिपाही को कहीं जाते हुए,
या फिर ठीक ठाक गाड़ी को तोड़कर,एक्सीडेंटशुदा बनाते हुए,
हाँ , मैंने देखा है ,इस देश के हर पुलिस थाने में ,
सत्यमेव जयते को कोने में बैठ, रोते हुए, तिल तिल मरते हुए
=========मन वकील



Saturday 19 May 2012

सत्यमेव जयते( भाग - एक)
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
जहाँ न्याय बैठा है अँधा होकर, आँखों से अँधा,
बहरा भी हो गया है, तभी तो न्याय नहीं सुनता,
किसी निर्धन की व्यथा,ना ही देख पाता अन्याय,
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
जहाँ धनी झट से,नियत तिथि से निवृत होकर,
कुरते की सिलवटें झाड़ता, बाहर निकल जाता,
न्यायालय के कमरे से, पेशकार को खरीद कर,
और निर्धन सिर्फ करता, प्रतीक्षा अपनी पुकार की,
और फिर भीतर जाकर, सुनता डांट फटकार बस,
कभी जज से, कभी पेशकार से या फिर नायब से,
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
जहाँ वो बुढ़िया,अपने हाथों में कुचला कागज़ लिए,
बस आस लगाए बैठी अपने बेटे के आने की, परेशान,
जो कल रात से, ना जाने क्यों, है पुलिस का मेहमान,
पुलिस ने कल रात, एक साथ कई केसों को किया हल,
तभी तो बुढ़िया का निर्दोष बेटा, भुगतेगा कर्मों का फल,
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
जहाँ कुछ अधिवक्ता,वकालत के असूलों से नहीं जुड़े,
जिनका ईमान है पैसा,चाहे उनकी बहस कहीं भी मुड़े,
इन्साफ को भुला,विरोधी से मिला लेते है वो हाथ,
जिरह न कर, खुद देने लगते है विरोधी का ही साथ,
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
जहाँ फाइलों का गम होना, अब आम सी ही है बात,
जजों के घर अब महफ़िल जमती,खरीदारों की सारी रात,
जहाँ फैसले इलम और इन्साफ से नहीं,मोल से बनते,
जहाँ मकानों के ठेकेदार,अब मासूम किरायेदारों पर तनते
सत्यमेव जयते, हाँ मैंने देखा है,उस कचेहरी में ,
एक पटल पर अब बस लिखा रह गया है बनकर एक नारा,
सत्यमेव जयते से अब, न्याय की देवी ने कर लिया किनारा .......
==मन वकील
 

Tuesday 15 May 2012

उधेड़बुन उधेड़बुन , ना जाने कैसी कशमकश है?,
कहीं कोई धागे का सिरा, हाथों में आकर अचानक,
छूट जाता है, बस मैं लगा रहता जोड़ने की कोशिश,
तमाम सवाल ना जाने कहाँ से, एकाएक यूँ आकर,
बस गए है मेरे गहराए जाते हुए,बेशक्ल दिमाग में,
जैसे कुछ अनजाने लोग,एक मकान में किराएदार से,
दिन भर की चिल्ल-पौ, अब रातों में फैलाती है पाँव,
सन्नाटा तो है वहां,पर किसी शहतीर में दबा सा हुआ,
पसरने आया होगा, सोचते हुए किसी पल के बारे में,
और भागदौड़ की आहट सुन,चुपचाप हो गया शायद,
और कहीं छुपने की चाह में,बस दब के रह गया बेचारा,
सवाल तो आ बसे, पर जवाबों की राह रोके रहते हमेशा,
कितना भी धकेल लें, ये किवाड़ दिमाग को खोलने को,
पर ठसाठस जमे सवाल, रत्ती भर जगह नहीं छोड़ते,
अब तो धूल की परतें, नहीं जमती कहीं से आकर भी,
दिमाग में बनी हुई, उन पुरानी यादों की दीवारों पर,
तो कैसे भुला सकता हूँ मैं, वो गुज़रे हुए मीठे पल,
और संग में साँपों से रेंगते,नागों से डसते हर पल,
वो नाशुक्रियत से बहे, बेईज्जती के कसे अहसास,
बस कुरेदते है मुझे, दिखा दिखा कर डरावनी शक्लें,
क्योकि अभी दिमाग में, उनकी दीवारे बिना ढंके है, 
नयापन, नए रिश्ते, कुछ ख़ुशी नहीं देतें अब मुझे,
बस देते है तो,इक डर, एक खौफ, जो एक रंग सा,
फिर पुत जायेगा,नयी परत बना यादों की दीवारों पर,
मैं थक गया हूँ अब, पथराई आँखें और सूखें होंठ,
कुछ कहना चाहते है, चीख चीख कर सबसे, सबसे,
फिर शुरू हो जाती है, वही उधेड़बुन, वही कशमकश ....
===मन वकील

Sunday 13 May 2012

"माँ,मेरे जीवन का बटवृक्ष हो"

        

ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,

मेरे अंकुरण से मेरे विकास का आधार हो, तुम
अपनी कोख में सहेज कर मुझे सींचती,
मेरे भीतर रक्त सहित गुणों का संचय करती,
मेरे भीतर अपने सदगुण व् अवयव भरती,
मुझे पीड़ा से मुक्त रख, स्वयं पीड़ा सहती,
बाह्य जगत में मेरे अवतरण का आधार हो, तुम
ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,
मेरे नन्हे पैरों में गति का वो संचरण करती,
मेरे अधरों में मीठे मीठे बोल भी तुम भरती,
मेरे तन को अपने रक्त अवयव से सींचे रहती,
स्वयं को भुला कर सदा मेरी सुध में खोयी रहती,
मेरे जीवन के अबोध पलों का अदभुद संसार हो, तुम
 ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,
मेरी शिक्षा का तुम हो प्रथम अन्वेषण-शाळा,
मेरी बुद्धि की सम्यक सहज शब्दों की कंठमाला,
संसार सुलभ नियमों का अनुपालन मुझसे करती,
कही भटक न जाऊं जीवन में, तुम इस भय से डरती,
मेरे सामाजिक नियमों में ढलने का एक आधार हो, तुम
ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,
मेरे मनसा की गति को तुम ही रही पहचानती,
मेरे जीवन के बदलाव को तुम ही रही मानती,
मेरे मन के गतिरोधों को रही तुम सदैव विरोध,
मेरे भीतर उत्पन्न अंधेरों को करती तुम अवरोध,
मेरे जीवन के पथ पर अनुशासन का मूलाधार हो, तुम
ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,
क्या क्या कहूँ ? समस्त शब्द पड़े इस व्याख्या से भी छोटे,
मेरी सुरक्षा,मेरे विकास में, तुम ही सहती जीवन में चोटें,
मेरे गुणों और अवगुणों का बनकर सदा एक माप दंड,
यदा कदा मैं कहीं भटका, तुम ही देती रही सुधार-दंड,
ईश्वर को नहीं जानती, पर ईश्वर का एक अवतार हो, तुम
ओह माँ ! तुम मेरे जीवन का बटवृक्ष हो,
==मन वकील

Tuesday 8 May 2012

जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,

जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
आज पड़ोस की बिट्टो को डाक्टर,
बनते देख,क्यों फूट फूट रोते हो बापू,
शर्मा जी के आँगन में फैली हुई, वो,
राखी पर खुशियों की सतरंगी चादर,
भाइयों के हाथो पर बंधते पवित्र धागे,
अब क्यों सांप लोट रहा छाती पर, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
रहमान चाचा को जाते देख,बेटी संग,
अपनी साइकिल पर बैठकर, स्कूल को,
बहुत हसरतों से आँखों में नमी लाते, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
गुप्ता जी की बेटी की बिधाई के मौके पर,
माँ को थाम कर बहुत रोते रहे,झरने से,
और कहते रहे, अगर आज मैं होती, तो,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
जब भैया ने पकड़ तुम्हारा वो हाथ, ऐसे,
मरोड़ दिया था, तुम्हारे बाप होने का गरूर,
तब आसमान की ओर मुहं करके, बहुत रोये
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
अब जब तक रहोगे, इस धरती पर,
बस खुद को ही रहोगे, दिन भर कोसते,
संग माँ को भी रुलाओगे, मुझे याद कर,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
आज पड़ोस की बिट्टो को डाक्टर,
बनते देख,क्यों फूट फूट रोते हो बापू,
शर्मा जी के आँगन में फैली हुई, वो,
राखी पर खुशियों की सतरंगी चादर,
भाइयों के हाथो पर बंधते पवित्र धागे,
अब क्यों सांप लोट रहा छाती पर, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
रहमान चाचा को जाते देख,बेटी संग,
अपनी साइकिल पर बैठकर, स्कूल को,
बहुत हसरतों से आँखों में नमी लाते, बापू,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
गुप्ता जी की बेटी की बिधाई के मौके पर,
माँ को थाम कर बहुत रोते रहे,झरने से,
और कहते रहे, अगर आज मैं होती, तो,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू,
जब भैया ने पकड़ तुम्हारा वो हाथ, ऐसे,
मरोड़ दिया था, तुम्हारे बाप होने का गरूर,
तब आसमान की ओर मुहं करके, बहुत रोये
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
अब जब तक रहोगे, इस धरती पर, 
रहोगे सदा कोसते खुद को, दिन भर
संग में रुलाओगे माँ को भी, मुझे याद कर,
जब माँ की कोख में मार दिया था मुझे,
तब क्यों नहीं भर आया था दिल, बापू
=मन- वकील

Tuesday 1 May 2012

मन की कही, और मन ने ही ना जानी,
मन सो डरे, और मन की सुने कटु बानी,
मन सो ढूंढे,और मन में बसी वो अनजानी,
मन को मारे, और मन की सुनाये कहानी,
मन में बसे, और मन की तोड़े आस पुरानी,
मन में उड़े, और मन की ना थाह पहचानी,
मन सो खाए,और मन की कब क्षुधा मिटानी,
मन में व्यापे,और मन में काल-कोठरी बनानी,
मन का बैरी, और मन का मोह बने जो ज्ञानी,
मन से ना लिखे, मन-वकील अब निपट अज्ञानी   .......