रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
फलसफ़ा नहीं है जिन्दगी,पर फलसफे से ना कम,
खुशियाँ फिसल जाए हाथों से, दे जाती कितने गम,
अफ़सोस का भी वक्त नहीं देती,सिमट जाये पल में,
कभी अकेली खड़ी होती,कभी रपट जाती हलचल में,
जिन्दगी के लिखे पन्ने मैं, अपने हाथों से मोड़ता हूँ,
रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
मुझसे यूँ परे रहते वो अब,जो कभी मुझको थे चाहते,
मेरी बात पर देते जो दाद, उन्हें हम अब ना है सुहाते,
जिनकी आखें मेरे दीदार की थी प्यासी, वो थे मुरीद,
बेवक्त मुझसे बतियाते थे वो, दिल से निकलती दीद,
सपनों में अब भी मेरे, मैं वो नाते उनसे यूँही जोड़ता हूँ
रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
खुद को कहते है वो इन्सान, पर इन्सिनियत कहाँ उनमे,
जानवर को भी करे शर्मिंदा,इतनी जलालत जो भरी उनमे,
मचाये रहते वो लूट खसोट, चोरो बेईमानों का है यहाँ जोर,
मन वकील हूँ ईमानदार,जमाने के चलन में पागल कमज़ोर,
अब लेकर हाथों में अपने पत्थर,उन चोरो का स़िर फोड़ता हूँ,
रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
====मन वकील