Wednesday 28 August 2013

मन वकील हूँ पागल



रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
     फलसफ़ा नहीं है जिन्दगी,पर फलसफे से ना कम,
     खुशियाँ फिसल जाए हाथों से, दे जाती कितने गम,
     अफ़सोस का भी वक्त नहीं देती,सिमट जाये पल में,
     कभी अकेली खड़ी होती,कभी रपट जाती हलचल में,
     जिन्दगी के लिखे पन्ने मैं, अपने हाथों से मोड़ता हूँ,
     रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
     कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ, 
मुझसे यूँ परे रहते वो अब,जो कभी मुझको थे चाहते,
मेरी बात पर देते जो दाद, उन्हें हम अब ना है सुहाते,
जिनकी आखें मेरे दीदार की थी प्यासी, वो थे मुरीद,
बेवक्त मुझसे बतियाते थे वो, दिल से निकलती दीद,
सपनों में अब भी मेरे, मैं वो नाते उनसे यूँही जोड़ता हूँ  
रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,  
   खुद को कहते है वो इन्सान, पर इन्सिनियत कहाँ उनमे,
   जानवर को भी करे शर्मिंदा,इतनी जलालत जो भरी उनमे,
   मचाये रहते वो लूट खसोट, चोरो बेईमानों का है यहाँ जोर,
   मन वकील हूँ ईमानदार,जमाने के चलन में पागल कमज़ोर, 
   अब लेकर हाथों में अपने पत्थर,उन चोरो का स़िर फोड़ता हूँ,
   रिश्तों के वो कच्चे पक्के धागे मैं युहीं तोड़ता हूँ,
   कई कई बार यूँ मैं खुद को खुद से ही झंझोड़ता हूँ,
====मन वकील 

Saturday 24 August 2013

काहे कहे मन तोहे बैरी, जो मन निज ही बेगाना,
प्रेम सुख दियो तू मोहे,कियो अवसाद को निदाना,
मूरख होय रहो मन, निज नार तुल्य सो पहचाना,
अंतरजाल कियो मोहे भ्रमित,बुद्धि होय अवसाना,
क्षमा देयो मोहे तुम प्रिये,कटु बोल मैं तोहे बखाना,
मन वकील काहे बने अधीरा,जो बांटे परजन ज्ञाना,

अनोखी सी इक चीज़



रब ने अनोखी सी इक चीज़ मेरी तकदीर बनाई,
शक्ल पे तो लिखी अमीरी, जेब यूँ फ़क़ीर बनाई,
लुटाता रहा दौलत यूँ मैं मोहब्बत की बेपरवाह हो,
अपने खुद के हिस्से में बस रखी हमेशा वो तन्हाई,
कोई आकर कहता जो कभी,तुम हो मेरे मन वकील,
मैं दीवाना हो नाचता फिरता, तमाशा बन जगहँसाई,
टूटता फिर जो भरम,पैरों तले खिसक जाए वो जमीं,
कुछ देर ठहर खुद में, टटोलता फिरता तेरी परछाई,
रब ने अनोखी सी इक चीज़ मेरी तकदीर बनाई,
== मन वकील      

मेहरबानियाँ जो तेरी,


मेहरबानियाँ जो तेरी, तू रुक कर बात कर लेता मुझसे,
वरना अकेले ही खड़े हम,जिसको रुस्वाइयाँ भी ना छूती,
चंद साल बकाया हो शायद,मेरी रुख्सती को इस दुनिया से,
झेलता यूँ हर सितम चुपचाप,कोई शह मुझसे नहीं अछूती,
मेरी ख़ामोशी को ना समझ, तू मेरी कोई रूहानी कमज़ोरी,
मैं सख्त हूँ बेसख्ता भी शायद, चाहे हो किस्मत मेरी रूठी,
खुद को खुद से समझता मैं, हूँ किसी चाहत से चाहे महरूम,
कुछ तो हूँ अलग जमाने से, शायद मेरी दीवानगी ही अनूठी,
तभी अक्सर तू खिंचा चला आता,बेवक्त यूँ मेरे पास बेबात,
रोशनी ना हो चाहे कोई,अँधेरों की कालिख मुझसे ना छूटी, 
मेहरबानियाँ जो तेरी, तू रुक कर बात कर लेता मुझसे,
वरना अकेले ही खड़े हम,जिसको रुस्वाइयाँ भी ना छूती,
==मन वकील

Friday 23 August 2013

अक्सर


वो चंद सवाल रह रह कर उठते मेरे मन में ,
क्या खोजता फिरता हूँ मैं, यहाँ वहां अक्सर,
किससे करता मैं, क्यूँकर करता मैं उम्मीद,
जब तन्हाई ही आन बसती मेरे भीतर अक्सर,
तमाशबीन है संग संगदिल लोग मिलते मुझे,
मैं खिलौना हाथों में उनके टूट जाता अक्सर,
जब भी चाहो आकर खेलो मेरे अरमानों से,
आखिर ख्वाब देखते नादाँ तुम्हारे यूँ अक्सर,
मत पूछ क्यों नहीं रोता मैं तेरे सामने ऐसे,
आँखों की झील सूख जाती यूँ मेरी अक्सर,
तू मत जा मेरे रुसवा चेहरे की शिकन पर,
कमबख्त शक्ल बना लेता ये रोंदी अक्सर ...
==मन वकील
   

Wednesday 21 August 2013

प्रेम राग




खट्टी मीठी नोकझोंक, करे प्रेम गाढ़ा,
पिया बने कम्बल, आये जब भी जाड़ा,
आये ज्यो जाड़ा, पिया करते मनुहार,
ग्रीष्म आये चाहे,घटे ना घट घट प्यार,
बूंद बूंद बरसे सावन,प्रेम पिया बरसाय,
ऋतु चाहे परिवर्तित,मोह बढ़ता ही जाय,
मोह बढ़ता जैसे,पिया दिखलाय अनुराग,
प्रेयसी सह पिया गंधर्व सो गावे प्रेम राग,

Tuesday 20 August 2013

सरकारी कवि


एक भूखे भेड़िये सा जो डिनर पर टूट पड़े 
वो कवि नहीं मित्र, सरकारी कवि कहलाय,
जो केवल प्याली चाय से ना हो व्यवस्थित,  
सुर से परे केवल निज मन सुरा से रिझाय,
जो नवरचनाकारों के ज्ञान को करे निजघोषित 
उनमे बसे छंदों के निज उत्पादित कह सुनाय 
सरकारी पुस्तकों में जाकर बसे काव्य बन,
सत्ताधारी की चापलूसी कर अलंकृत,हो जाये 
मन-वकील मूर्ख भला करता फिर तुकबंदी,
काहे उधेड़बुन करे व्यर्थ, क्यों कवि कहलाय ...
==मन वकील


संदिली बदन से तेरे वो रिसती है रस के बूंदे,
मैं मदमस्त हो जाता किसी भौरांये गज सा,
यौवन करता तेरा आनंदित मुझे हे वैभवी,
तू मेरी प्रेयसी तू मेरी मधुरिमा मैं हूँ रज़ सा

काम  रस भरे तेरे दोहु नैना हिरनी से कजरारे,
मैं मूक कैसे होता भला जो तेरे होंठ करे इशारे 
तू बसी मेरे जीवन में जो नभ में बसे वो तारे,
तू है धरा सी प्यासी, मैं देता रस की वो फुहारें
तू कहती है मुझे उष्मित मैं रहा करूँ सहज सा 
तू मेरी प्रेयसी तू मेरी मधुरिमा मैं हूँ रज़ सा