Tuesday 20 November 2012

 सी लो जुबान अब कुछ बोलो नहीं भाई 
 अब मुल्क में ना प्रजातंत्र ना लोकशाई, 
 बँटे है क्षेत्र अब छोटी छोटी रियासतों में,
 राज्य भी अब बन गये रजवाड़े घटों में, 
 प्रजा है , संग में है नेताओं की राजशाई,
 सल्तनतें बना खाए जाए ये दूध मलाई, 
सी लो जुबान अब कुछ बोलो नहीं भाई,
अब मुल्क में ना प्रजातंत्र ना लोकशाई, 
मरे आम आदमी ना कोई गम ना शोक,
नेताजी के मरने से सड़कों पर लगे रोक, 
जनता को मरने पर ना शमशान ना कब्र,
नेताजी के मरने पर चमचों का टूटे सब्र,
नेता के शोक जलूस में हडकंप मचे भाई,
जो खुली देखी दूकान, झट से आग लगाई 
सी लो जुबान अब कुछ बोलो नहीं भाई,
अब मुल्क में ना प्रजातंत्र ना लोकशाई,  
खेल मैदानों पर बनती नेता की समाधि 
कौतुहल देखने आई भीड़ करती है बर्बादी 
मत लिखो मत बोलो नहीं यहाँ आज़ादी,
जाओगे जेल बेसाख्ता,बढाने वहां आबादी,
क्यों लिखते,मत बोलो,आँखें मीच लो भाई,
गाँधीजी ने हमें तीन बंदरों की सीख पढ़ाई,
सी लो जुबान अब कुछ बोलो नहीं भाई,
 अब मुल्क में ना प्रजातंत्र ना लोकशाई,  
==मन वकील 

Monday 19 November 2012

कभी ढूंढ़ता फिरता है, वो इक अक्स, 
जो ना हो उस जैसा,पर उससे ही उभरे  
ना हो रंग साफ़ पर स्यामल से निखरे 
आड़ी तिरछी लकीरों से जरा सा हटकर,
कुछ सपनों में घुलमिल या फिर बँटकर, 
आसमानी रंगों की कुछ हो रंगत समेटे,
कभी लताओं में खुद तन को वो लपेटे, 
चांदनी की ठंडक ले कभी सूरज का गर्मी,
कभी सख्त हो उभरे कभी बसाए नरमी,
अन्तर्वासना के जल से भी भरकर निकले,
सौन्दर्य की तपिश से जरा सा वो पिघले,
कुछ ऐसी उम्मीदों से घिरा है वो इक शख्स,
कभी  ढूंढता फिरता है वो एक अक्स।।
==मन वकील 

Wednesday 14 November 2012

           
  कैसा यह बालदिवस है?
     जब मासूम चेहरे पर छाई हो भूख की चादर,
    वो टेबल पोंछते नन्हे मासूम झेलते अनादर,
    नन्हे हाथ जो बीनते है गलियों में कूड़े के ढेर,
    चेहरे में मासूमियत के जगह कालिख अँधेर,
    क्रूर हाथो से झेलता जो नित नयी सी हवस है,
    सड़कों पर रोता फिरता,कैसा यह बाल दिवस है,
    कभी बंद कमरों में झेलता फिरता है घूंसे लातें,
    कभी झूठे बर्तनों से बैठ कर दुःख अपने है बांटे,
    कभी चौराहों पर गुब्बारे बेचे,कमाए चंद सिक्के,
    कभी मंदिरों में, लंगरों में भूख में बस खाए धक्के,
    पैदा हुआ तो शायद था उजाला, अब वो तमस है,
   
सड़कों पर रोता फिरता,कैसा यह बाल दिवस है,
    अखबारों के इश्तिहारों में वो चंद मुस्कराहट भरी,
    नेताओं की तस्वीरों के नीचे वो नन्ही बालिका खड़ी,
    इन बंटते वजीफों का अब हकदार कौन है भाई,
    सरकारी बाबू और अध्यापकों से कैसी लूट मचाई,
    सरकारी अनुदान अब मिटाते किस की वो हवस है
     सड़कों पर रोता फिरता,कैसा यह बाल दिवस है,   
     ===मन वकील




  

 

Monday 12 November 2012

कब मानेगी निर्धन के घर में दीवाली,

  नमन सर्वप्रथम है उस प्रथमेश को,
  जो रिद्धि सिद्धि व् समृद्धि के दाता है,
  नमन उस मातेश्वरी लक्ष्मी को भी,
  जिसके आने से वैभव सुख आता है ,
  भरे है दीप घी से,होते है ज्योतिर्मय
  नमन जगदीश को,करता मैं विनय,
  प्रभु, अब समस्त दुखों को विराम दो,
  निरीह मेहनतकशों को भी आराम दो,
  क्यों सोते है वो रात्रि में बिना भोजन,
  पेट में जब क्षुधा तो कैसे शांत हो मन,
  प्रभु क्यों कलयुग में भ्रष्टाचारी हो सुखी,
  क्यों न्यायवादी मानव रहता यहाँ दुखी,
  क्यों तेरे इस जग में तन पर नही वसन,
  जो सभी पाप देख भीगते है तेरे भी नयन,
  कहाँ अब तेरा नाम जब फैले है आडम्बर,
  अब तेरे दर्शन को भी नहीं आता मेरा नंबर,
  कहाँ छुप के बैठा है प्रभु, जग का माली,
  बता कब मानेगी निर्धन के घर में दीवाली,
====मन वकील


 
   चमकते हुए सितारों की वो भरी थाली, 
    आज घर की मुंडेर पर मैंने है सजाई,
    तमस को मिटा कर प्रकाशित कर,
    मेरे घर वो दमकती दिवाली है आई,
    कभी छत से उड़ते रौशनी के राकेट,
    सड़क पर वो पटाखों के लड़ी है जलाई,
    सजी हुई दुकानों से बाज़ार की रौनक,
    चेहरों पर ख़ुशी लेकर वो भीड़ है आई,
    चमकते हुए सितारों की वो भरी थाली, 
     आज घर की मुंडेर पर मैंने है सजाई,
     कहाँ वो अमावस अब है ना रात सूनी,
     आतिशबाज़ियो का शोर देता है सुनाई,
     मेहमानों का वो यूँ आना नहीं है बोझ,
     आये वो संग मुस्कराहट के बँटे है मिठाई,
    नए पहनावों से अब नयी शान है दिखती,
    क्या बालक क्या बूढ़ा सभी नये लगे है भाई
    चमकते हुए सितारों की वो भरी थाली, 
     आज घर की मुंडेर पर मैंने है सजाई,
====मन वकील





   

Saturday 10 November 2012

ओम जय पत्नी मैया स्वामिनी पत्नी मैया,
तुमको निशदिन सेवत तुमको सदा ध्यावत
तुम्हारी ननदों का यह भैया, ॐ जय पत्नी मैया,
तुम ही घर की महारानी तुम ही घर के कर्ता धर्ता ,
तुमसे से सब भय खाते तुमसे हर कोई घर में डरता,
तुम ही डुबो दो किसी की भी नैया, ओम जय पत्नी मैया,
तुम हो रूप प्रचंडा तुम ही सर्व वधिनी क्रोध धारिणी,
क्षमा तुम्ही देती तुम ही पति की भव सागार तारिणी,
तुम ही कर दो किसी को भी हैया, ओम जय पत्नी मैया,
तुम जब होय प्रसन्न घर में आनंद मंगल कारज होवे,
जो तुम भयी रुष्टा वो पति बैठ बैठ रक्त अश्रु से रोये,
तुमरे समक्ष क्या शनि की भी ढैया, ओम जय पत्नी मैया,
बंधू बांधव सब तुमसे डरते सास ससुर शक्ति हीन भये,
दहेज़ पीड़ित कब बन जाओ,कौन पुलिस की मार सहे,
कोर्ट में चक्कर लगा करे पति हाय-दैय्या , ओम जय पत्नी मैया
जो पति अपनी भार्या के गुणगान गावे, सदा सुखी भोजन पावे,
चाहे जोरू का गुलाम कहलावे,पर सेज पर रात्री बिताये ,
आनंद मंगल जीवन से चले गृहस्थी की नैया, ओम जय पत्नी मैया ....
==मन वकील 

Wednesday 7 November 2012

था मेरे आँगन में भी एक पैसों वाला पेड़
जहाँ से गिरते रहते थे रोज़ पैसों के ढेर,
लगते थे जहाँ पैसे से उम्मीदों वाले फल,
हर काम आज ही होता था न पडती कल,
खुशियों की पैरवी करते सुविधा साधन,
नाच नाच मयूर हो उठता था मेरा मन,
कभी सावन था और कभी रहता बसंत,
नित नए पकवान दावतों का नहीं अंत,
कभी पहाड़ों की सैर कभी समुद्र मंथन,
रोज़ बैंक के चक्कर लगा जोड़ते थे धन,
फिर अचानक वो पेड़ को लग गयी नज़र,
धीरे धीरे होने लगा उसपर सूखे का असर,
पत्ते अब रोज़ नहीं लगते उसकी डाल पर,
मेहनत का पसीना भी होने लगा बेअसर,
अब वो पेड़ लगा झुलसने हो कर बर्बाद,
कहाँ से देता मैं उसमे बेईमानी की खाद,
इक दिन आया वो पेड़ बन गया था ठूँठ,
मैं खामोश था पीकर बदकिस्मती का घूंट,
भ्रष्टाचार का कीड़ा मेरे पेड़ की जड़े खा गया,
मन-वकील तू अब देख कैसा समय आ गया ....
==मन वकील