Wednesday 31 October 2012

ओम जय पत्नी दैया ओम जय देवी पत्नी हईया,
तुमको निशदिन पूजत तुमरी ननदों का भैया,
चाहे लव मेरिज से आओ,या घरवालों के कहने,
तुम कब्ज़ा ही लेती अपनी माँ और सास के गहने,
तुम से ही घर की शोभा सब घर में तुमसे डरते,
मुझ नर की क्या हिम्मत माँ बापू भी तुमसे डरते,
कब तुम भेजो दुखसागर में,अपने ही निरीह सैया
 ओम जय पत्नी दैया ओम जय देवी पत्नी हईया,
तुम जब खुश होती,तब घर में भोग पकवान मिले,
जब तुम होती रुष्ट,तो पति के लंगोट तक होते गीले,
तुम से कोई पार ना पाए, तुम हो घर में पति त्राता,
त्राहि माम करकर,नर आगे तुमरे अपनी पूँछ हिलाता,
देवर में सब दोष निकालो, भाये सदा अपना ही भैया, 
ओम जय पत्नी दैया ओम जय देवी पत्नी हईया,
तुम घर की महरानी, पर घर में महराजा कौन बने
 एकछत्र राज्य चलाती, तुमरे रोब  के आगे कौन तने,
पति कमाए जितना भी, तुम सब ही अपने पास रखती,
जो कुछ माँ को देवे, क्रोध से भस्म क्र देती उसकी माँ-भक्ति
घर में सब तुमसे चलता,ज्यो चले काल का बड़ा पहिया
ओम जय पत्नी दैया ओम जय देवी पत्नी हईया,
जो नर अपनी भार्या के आगे, नित नतमस्तक होता,
रात्रि आनंद भोगता, चैन से अपने कमरे में ही सोता,
जो नर बने दबंगा, कर देती भरे बाज़ार उसे वो नंगा,
चाहे तन पर हो कपडे, पर तमाशा बने भीड़ में बेढंगा,
सपरिवार कोर्ट के फेरे लगाता, जेब से निकले जाए रुपैया
ओम जय पत्नी दैया ओम जय देवी पत्नी हईया,
====नमन है वन्दनीय भार्या को ............

Monday 29 October 2012

भाग्य यदि लिखा होता किसी कागज़ पर,
तो शायद किताबसाज़ नसीबवाला होता,
या फिर जो लिखता "पाती" वो खुद लिखता,
मैं भी लिखवाता अपना भाग्य अनोखे सा,
और तुम से मेल कराता जोड़ उन लकीरों को,
फिर शायद हम मिलते उस ऊँचें चाँद पर,
भाग्य यदि लिखा होता किसी कागज़ पर,
मैं भी औडे रहता मखमली से वो दुशाले,
तुम को भी पहनता गहने वो नीले रत्नों वाले,
चिरयौवना कर देता तुम्हे मैं, लिख वो "पाति"
मैं बन वीर पुरुष तुम भोगती जो मुझे पाती,
रखता तुम्हे ह्रदय में, जो सोती सोने के सेज पर ,
भाग्य यदि लिखा होता किसी कागज़ पर,
===मन वकील

Saturday 27 October 2012

मैं हूँ तो हूँ ? कैसे कह दूँ नहीं हूँ

मैं हूँ तो हूँ ? कैसे कह दूँ नहीं हूँ
शब्दों के बिछे माया जाल सा,
रूठ कर बैठे प्रतीक्षित काल सा,
कहीं अचानक आये अँधेरे सा,
कभी चिंताओं के कोई घेरे सा,
मैं हूँ तो हूँ ? कैसे कह दूँ नहीं हूँ ,
कभी प्रेयसी के नेत्रों में आस सा,
कभी नभ पर बादल की प्यास सा
कही बसा हूँ आग के जलते ढेर सा,
कभी अचानक ही भौर सवेर सा,
मैं हूँ तो हूँ ? कैसे कह दूँ नहीं हूँ
कभी सूखते हुए ताल के तल सा,
कहीं पत्तियों के चेहरे पर जल सा,
कभी क्रंदन करता हूँ कभी वंदन सा,
कभी प्रौढ़ अनुभवी,कभी बाल नंदन सा,
मैं हूँ तो हूँ ? कैसे कह दूँ नहीं हूँ

Wednesday 24 October 2012

कितने रावन मारोगे अब तुम राम?
हर वर्ष खड़े हो जाते शीश उठाकर,
यहाँ वहाँ, हर स्थान पर पुनः पुनः,
कभी रूप धरते वो भ्रष्टाचार बनकर
कभी अत्याचार किसी निरीह पर,
कहीं बिलखते बच्चे की भूख बनकर,
अक्सर महंगाई का विकराल रूप धर,
कहीं धर्मांध आतंक के चोला पहनकर,
कभी किसी मलिला के कातिल बनकर,
कभी कसाब तो कभी दौउद बन बनकर
कभी मिलते राहों में कोई नेता बनकर,
अब नहीं दशानन वो है वो शतकानन,
मिलते है वो बनकर अब तो सह्स्त्रानन,
बस कलियुग में ही होते ऐसे अधर्मी काम,
कितने रावन मारोगे अब तुम राम?
==मन वकील   

Tuesday 16 October 2012


अपनी प्रिये भार्या को समर्पित एक रचना:-

सुबह तैयार हो जाती है वो अक्सर,कर्मठ सी,
एक योद्धा की भान्ति,कर्मभूमि को गमन हेतु,
अस्त्र कहाँ है हाथों में,वो तो रखती वो बुद्धि में,
तर्कों के तीर तेज़ कर सहेजे रहती है,बन केतु,
कानून के उलटे दांवपेंच नहीं चलती वो,तीव्रा,
बस शब्दों के मायाजाल को काट करना जानती,
युद्ध व्योम में वो किसी क्षत्रिय अभिमन्यु बन,
केवल धर्म से, सच्चाई से,वो दावें लड़ना जानती,
शायद तभी,छल कपट से भरे रहते उससे परे,
ना जाने कब उसके क्रोध की ताडिता न गिर पड़े,
प्रतिशोध से नहीं बुना झूठी प्रतिष्ठा का ताना बाना,
परिणाम को चाहा उसने,पर सत्य को भी पहचाना,
परिश्रम के समस्त मापदंडों को अपने भीतर समेटे,
बस निरंतर बढती रही है वो सादगी से जीवन लपेटे,
क्रोध भी करती अक्सर वो,करती उत्तेजना से प्रहार,
यदि कोई छल करता या समक्ष होता जो भ्रष्टाचार,
कभी खिन्न हो जाती,वो देख न्याय में धन का चलन,
कैसे जियेगा निर्धन यहाँ, सोच सोच टूट जाता मन,
मंद सा होता उत्साह, क्षीण होता हुआ उसका अंतर्मन,
मैं भी हो उठता व्याकुल, अनुभव कर वो पीड़ा तपन,
रात्रि के पहर बीतते,नयी किरणें लाती नव ऊर्जा व् बल,
वो फिर उठती व्यवस्थित हो, बन एक शक्ति नारी सबल ////////////

==मन वकील


 
जय माँ करुणेशवरी दयानेत्रधारिणी,
हस्त खडगधरा अरि समूल विनाशनी,
सिंह आरूढ़ रूपिणी रोध्र व्योम गर्जिनी,
तामस हन्तिका ज्योतिर-रूप धारिणी,
विलक्ष्ण गुण विराजते लक्ष्य विहारिणी,
क्षमेश्वरी कल्यानेश्वरी जगत मातेश्वरी,
समरविजित असुरवध चंडी रूपधारिणी,
आदिशक्ति सम्योजिता जय माँ दुर्गेश्वरी
====मन वकील

Sunday 14 October 2012

खंड-२ मन खंडित है,असत्य जो महामंडित है,
अब विधा भी रोती,माँ सरस्वती को पुकारती,
कण कण में जहाँ गुण और संगीत थे बसते,
वो धरा क्यों है श्याम, कहाँ है अब माँ भारती,
राहों पर धूल है,पग पग पर चुभते जो शूल है ,
तिरस्कृत हो कला भी,अब मृत्यु को निहारती,
यदि मन मेरा भ्रष्ट है,तब अंतर्ध्यान मेरे कष्ट है,
बोध का हनन कर,धनलक्ष्मी से करूँ मैं आरती,
खंड-२ मन खंडित है,असत्य जो महामंडित है,
अब विधा भी रोती,माँ सरस्वती को पुकारती,

Saturday 13 October 2012

मैं निर्दोष था , फिर भी कुछ दोष था,
वो दोष मैं जान बुझकर न ढूंढ़ पाया,
स्वप्न थे कुछ अव्यक्त भावनाओं से,
जो टूटे एकाएक जब उसने जगाया,
चाहत थी या वो मेरी लोलुपता रही,
उसका सानिध्य भी ना बता पाया,
अनमने मन से हुआ उससे पृथक,
किन्तु अपने मन की ना कह पाया,
 मैं निर्दोष था , फिर भी कुछ दोष था,
वो दोष मैं जान बुझकर न ढूंढ़ पाया,

Tuesday 9 October 2012

बहुत दिनों के बाद, आज मिले इक मित्र,
बोले झट से मुझे, कैसे हो मन वकील भाई,
अरे कई दिनों से मैं, रहा हूँ देख इस मंच पर,
आप ने अपनी कोई,नयी रचना नहीं लगाई,
दिन भर कोर्ट में पिसते,जब शाम जब आते,
नई पुरानी छोरियों के तुम, अव्यव हो दिखाते,
अजब गज़ब छाया चित्रों के नाम पर अक्सर,
नित नग्न अर्धनग्न छोरियों से संख्या बढ़ाई,
क्या सूख गये मन के भाव,जो हो गये तुम ऐसे,
केवल खोये नार तन में,जो शब्द न देत सुझाई
अरे कई दिनों से मैं, रहा हूँ देख इस मंच पर,
आप ने अपनी कोई,नयी रचना नहीं लगाई,
मैं हक्का था कुछ भौंचक्का भी था, सुनकर,
फिर बोला अरे तनिक रुक तो जाओ मेरे भाई,
सिर पर तनाव के बोझ पड़ा जब भारी भारी,
पैसे से ज्यादा अब खर्चे, जिन्दगी बनी उधारी,
ऐसे में बंधू,केवल भावों में राशन के भाव दिखते,
जब बच्चे मांगे स्कूल की फीस,रचना कैसे लिखते,
अब तो खाने को मांगती हमसे,अक्सर वो तन्हाई,
कैसे सोचे कुछ लिखे,जो रुसवा होय तुम्हारी भौजाई,
मन वकील भी है आम आदमी,नहीं कोई गौसाई,
पैसे की चाहत में,अब शैने शैने मरी रही लेखनी और लिखाई ................
==मन वकील
 

Friday 5 October 2012

रोवत है अब मोरी बांसुरी,
मृदंग भी भयी बिन ताल,
वीणा में कोई झंकार नहीं,
ढोल हुआ  बिन सुर ताल,
सारेगामा पा धी ना खोया,
सुर भूले हो बेसुरे खड़ताल ,
जीवन में सबहु सुर-विहीन,
क्या नभ ऊपर, नीचे ताल,
वायु ध्वनि लगे साँय साँय,
खग कलरव भी करे बेहाल,
जीवन में संगीत कहाँ अब,
मन-वकील, जीवन विकराल /////////////////