Sunday 11 May 2014



आँखें खोल कर मैं अब भी वैसे ही हूँ रोता,
देख तो मुझे मेरी माँ', मैं आज भी हूँ छोटा,

तेरे हाथ मेरे गालों को अब भी है सहलाते,
ना जाने कब हम यूँ, ऐसे ही बड़ें हो जाते,
भीड़ होती अक्सर मेरे इर्द गिर्द, घेरे मुझे 
पर उस भीड़ मे, मैं अकेला ही खड़ा होता,
आँखें खोल कर मैं अब भी वैसे ही हूँ रोता, 

कैसे भागती थी तुम लेकर हाथोँ मे निवाला,
मैं आगे आगे भागता, जैसे बन मे गोपाला,
मुझे खिलाने के लिये भुला देती अपनी भूख,
मेरे पास अब यूँ खाने का वक्त कहाँ है होता,
आँखें खोल कर मैं अब भी वैसे ही हूँ रोता,
देख तो मुझे मेरी माँ', मैं आज भी हूँ छोटा,

हर अहसास से अधिकतर वो अनोखा दुलार,
माँ, तुझसे बढ़कर कौन करता मुझसे प्यार,
मेरी गलतियों को भूल लगा लेतीं मुझे गले,
कौन मेरे कीचड़ से सने पैर अपनें हाथोँ से धोता,
आँखें खोल कर मैं अब भी वैसे ही हूँ रोता, 

आँखें खोल कर मैं अब भी वैसे ही हूँ रोता,
देख तो मुझे मेरी माँ', मैं आज भी हूँ छोटा,
=मन वकील 


Tuesday 22 April 2014


 बुरे वक़्त से बीते वो सब लम्हें,
 रोज़ मन के कोनों से यूँ निकल,
 फेंकने जाता था नदी के किनारे,
 नदी के किनारों की गीली मिट्टी,
 उसकी फ़टी बिवाईयों में फंस जाती,

  कुछ मैल तो वो छोड़ आता था वहाँ, 
  नया मैल पैरों में सिमट घर आ जाता,
  जैसे जैसे वो मिट्टी सूखती रहती,
  मन में फंसे फाँस भी गहरे होते जाते,
  थे  बुरे वक़्त से बीते वो सब लम्हें,

Thursday 17 April 2014

          
 परन्तु जवाब में भारतीय पुरुष कहता है :-

तुम केवल देह तक ही क्यों सिमटी हो प्रिये। 
जब इस देह में अब आत्मा तुम्हारे नाम की। 

देह पर पीत हल्दी से अधिक गहरी गाढ़ी बहती,
मेरे देह में रुधिर के रक्तिमा लाली तेरे नाम की 

तुम तो मेहंदी रचा हाथों में मुझे याद करती हो प्रिये 
मेरे रुधिर के कण में रची बसी स्मृति तेरे नाम की ।

चुनरी ओढ़  कर जो रूप तुम दिखलाती हो प्रिये 
उसकी ओट में बसी धड़कन ह्रदय में तेरे नाम की ।

मांग में सिन्दूर है रचाया तुमने गहरा सा, प्रिये,
उनकी लालिमा बसी मेरे नेत्रों में तेरे नाम की 

यदि कभी किसी भी पल तुमसे जो होता दूर, प्रिये 
घर वापिस लाने को उद्धत करती, प्रेम भावना तेरे नाम की। … 

== मन वकील 

Tuesday 8 April 2014

 रुके हुए शब्दों को कौंच कौंच कर बाहर निकलना,
   अँधेरे से घिरे मन के कोनों से,टोहकर बाहर खींचना,
   सचमुच बहुत मुश्किल होता है मित्रों बहुत ही मुश्किल,
    
   कम्बख्त भावों के लबादें औड़ कर चुपचाप बैठ जातें,
   और आँसुओं की खुराक खुद को चुपचाप सींचते जातें,
   कभी कभी पुरानी स्मृतियोँ से गूँगे हो बतियाते रहते,
   बीते पलों की रंग बिरंगी या काली स्याही उड़ेलते रहते,
   और मैं मन वकील, कलम हाथों में लिए सोचता रहता 
   कि इन रुके हुए शब्दों को कौंच कौंच कर बाहर निकलना,
   सचमुच बहुत मुश्किल होता है मित्रों बहुत ही मुश्किल,

Saturday 22 March 2014


कलम लेकर बैठा हूँ मैं आज फिर कुछ लिखने,
शून्य है दिमाग,भाव ह्रदय में उमड़ उमड़ से रहे,
अक्षरोँ की चींटियाँ ना जाने कहाँ से लगी काटने,
शब्द न जाने क्यों? मन के कोने में झग़ड से रहे,

क्या लिखूं मैं ?अपने पिता का आकस्मिक स्वर्गवास   
या लिखूं मैं,स्वयं का क्रंदन या माँ की हालत बदहवास,
पुनः पुनः जागती रिक्तता, अश्रु बदरा बन उमड़ से रहे  
शब्द न जाने क्यों? मन के कोने में झग़ड से रहे,

जीवन है फिर से लगेगा चलने,मान निज को अमित,
भुला देगा वो मृत्य़ु सत्य,बन अविरल गतिशील फलित,
स्मृतियों में होंगे स्थिर,अब जो स्वप्न बन उमड़ से रहे 
शब्द न जाने क्यों? मन के कोने में झग़ड से रहे,

==मन वकील 

Thursday 20 March 2014

                                पिता का साया 

              उनके मज़बूत हाथों में मेरे नन्हे हाथ थे थमे, 
             और मैं सीख गया दुनिया की राह पर चलना,
             अपनी भूख भुलाकर वो कड़ी मेहनत थे करते, 
             माँ मुझे देती थाली में सजाकर,यूँ भरपेट खाना,
            अपनी फटी बनियान को चुपचाप सी लेते थे वो,
            पर मुझे नयी टी-शर्ट में देखकर वो खूब खुश होते,
            मेरी परवरिश के लिए न्यौछावर कर दिए सुख,
            मुझे बड़ा होते देख जो हमेशा खुश बहुत थे होते 
            वो पिताजी थे मेरे, जो थे मेरे जीवन का आधार,
            छोड़कर चले गये अचानक, अब कहाँ होंगे सोते 
            मैं यहाँ वहाँ ढूँढता हूँ उन्हें, वो उनकी शीतल छाया,
            बहुत नसीब वाला था मैं, जब तक था पिता का साया ===

        ( अपने परम प्रिये पिता जी की याद में )

==मन वकील 

Monday 3 February 2014

कभी जुबान नहीं खुलती, कही बंद नही होती ये जुबान,
खाता रहता है लानतें वो, मान कर दुनिया का अहसान,
सीखे कैसे वो वक्त की पाबन्दी,तोलकर शब्दों को पिरोना,
बेइन्तेहा बेवजह जुबान खोलकर बन गया वो खिलौना,
लोगों की आँखों में नफ़रत, वो बना फिरता यूँ अनजान,
कभी जुबान नहीं खुलती, कही बंद नही होती ये जुबान,