उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
न जाने क्यों मुड़ मुड़ कर कदम,
फिर बढ आते उसी राह पर,
और नैन खोजते रहते यहाँ वहां,
उसकी वो मोहिनी मूरत को,
और बैचैन सा हो उठता था मैं,
सुध नहीं रहती अपने तर्कों की,
और वो सारे प्रण भुला बैठता,
मैं एकाएक ना जाने क्यूँकर,
अशांत मन अतृप्त काग सा,
और कोई औंस की बूंद भी,
नहीं मिलती किसी प्रेयसी से ,
फिर मैं नए प्रण लेता, हारकर,
केवल यही धूल पुनः छांटने को,
सोचता रहता सदैव, मैं मन में ,
उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
====मन-वकील
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
न जाने क्यों मुड़ मुड़ कर कदम,
फिर बढ आते उसी राह पर,
और नैन खोजते रहते यहाँ वहां,
उसकी वो मोहिनी मूरत को,
और बैचैन सा हो उठता था मैं,
सुध नहीं रहती अपने तर्कों की,
और वो सारे प्रण भुला बैठता,
मैं एकाएक ना जाने क्यूँकर,
अशांत मन अतृप्त काग सा,
और कोई औंस की बूंद भी,
नहीं मिलती किसी प्रेयसी से ,
फिर मैं नए प्रण लेता, हारकर,
केवल यही धूल पुनः छांटने को,
सोचता रहता सदैव, मैं मन में ,
उससे स्नेह था या फिर मोह,
मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया,
====मन-वकील
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